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तत्वनिर्णयप्रासादसत्य विषयको जाणता हुआ भी, झूठे पक्षका कदाग्रह, ग्रहण करे, जात्यादि अभिमानसे कहना, न माने, उलटी स्वकपोलकल्पित कुयुक्तियों बनाकरके अपने मनमाने मतको सिद्ध करे, वादमें हार जावे तो भी न माने, ऐसा जीव, अतिपापी, और बहुल संसारी होता है. ऐसा मिथ्यात्व, प्रायः जो जैनी, जैन मतको विपरीतकथन करता है, उसमें होता है, गोष्ठमाहिलादिवत् ॥
(४) चौथा सांशयिकमिथ्यात्व, सो देव गुरु धर्म जीव काल पुद्गलादिक पदार्थों में यह सत्य है कि, यह सत्य है ? ऐसी बुद्धि, तिसको सांशयिकमिथ्यात्व कहते हैं. यथा क्या वह जीव असंख्य प्रदेशी है? वा नहीं है? इसतरें जिनोक्त सर्व पदार्थमें शंका करनी । “सांशयिक मिथ्यात्वं तदशेषया शंका संदेहो जिनोक्ततत्त्वेष्वितिवचनात् ॥"
(५) पांचमा अनाभोगिकमिथ्यात्व, सो जिन जिवोंको उपयोग नही कि, धर्म अधर्म क्या वस्तु है? ऐसें जे एकेंद्रियादि विशेषचैतन्यरहित जीव, तिनको अनाभोगमिथ्यात्व होता है.॥२॥
अथदेवलक्षणमाह ॥ देव सो कहिये, जो सर्वज्ञ होवे, परंतु जैसे लौकिक मतमें विनायकका मस्तक ईश्वरने छेदन कर दिया, पीछे पार्वतीके आग्रहसें सर्वत्र देखने लगा, परं किसी जगे भी मस्तक न देखा, तब हाथीके मस्तकको ल्यायके विनायकके मस्तकके स्थानपर चेप दिया, जिसवास्ते विनायकका ( गणेशका ) नाम “ गजानन” प्रसिद्ध हुआ. इत्यादि-यदि ईश्वर (महादेव) सर्वज्ञ होवे तो, पार्वतीका पुत्र जाणके विनायकका मस्तक कभी न छेदन करे. यदि छेदे, तो जगत्में विद्यमान तिस मस्तकको क्यों न देखे ? इसवास्ते ऐसें अधूरेज्ञानवालेको देव न कहिये. । तथा 'जितरागादिदोषः' जे संसारके मूलकारण राग द्वेष काम क्रोध लोभ मोहादिक दोष, तिन सर्वको जिसने जीते हैं, निर्मूल किये हैं, तिसको देव कहिये. जिसमें रागादि दोष होवे, तिसको अस्मदादिवत् संसारी जीवही कहिये, तिसमें देवपणा न होवे । तथा
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