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तत्त्वनिणयप्रासादरायाभिओगेणंगणाभिओगेणंबलाभिओगेणं देवयाभिओगेणं गुरुनिग्गहेणंवित्तीकंतारेणं तं चउव्विहं । तंजहा। दवओ खित्तओकालओभावओदव्यओणं दंसणदव्वाइं अंगीकयाई। खित्तओणं उढलोए वा अहोलोए वा तिरिअलोए वा । कालओणं जावज्जीवाए । भावओणं जावगहणं न गहिज्जामि जाव छलेणं न छलिज्जामि जाव सन्निवाएणं नाभिभविस्सामि अन्नेण वा केणइ परिणामवसेण परिणामो मे न परिवडइ ताव मे एसा दमणपडिवत्ती ॥"
इति गुरुविशेषेण द्वितीयो दंडकः ॥ प्रथम दंडक, वा यह दंडक दोनोमेंसें कोइ एक दंडक तीन वार उच्चारण करे.। पीछे गाथा ॥ “इअ मिच्छाओ विरमिअ सम्म उवगम्म भणइ गुरुपुरओ। अरिहंतो निस्संगो मम देवो दक्खणा साहू ॥१॥" गुरु तीन बार यह गाथा पढके श्राद्धके मस्तकोपरि वासक्षेप करे. । पीछे गुरु, निषद्याऊपर बैठे, बैठके गंध अक्षत वासांको सूरिमंत्रसे, वा गणिविद्यासें मंत्रे.। पीछे तिन गंधाक्षत वासांको हाथमें लेके जिन चरणोंको स्पर्श करावे. । पीछे तिनको साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकाओंको देवे. ते साधुआदि, मुट्ठीमें लेलेवे। पीछे श्राद्ध आसनोपरि बैठे गुरुके आगे क्षमाश्रमण देके कहे ॥“ भयवं तुब्भे अम्हं सम्मत्ताइस माइयं आरोवेह । ” गुरुकहे “ आरोवेमि” फिर श्रावक क्षमाश्रमण देके कहे “संदिसह किं भणामि" गुरु कहे “वंदित्तु पवेयह” फिर श्रावक क्षमाश्रमण देके कहे “ भयवं तुज्झेहिं अम्हं सामाइयतिअमारोविअं” गुरु कहे “ आरोवियं २ खमासमणेणं हच्छेणं सुत्तेणंअच्छेणंतदुभएणं गुरुगुणेहिं वहाहि निच्छारगपारगो होहि"श्रावक कहे “इच्छामोअणुसहि" पुनः श्रावक क्षमाश्रमण देके कहे “ तुम्हाणं पवेइयं संदिसह साहूणं
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