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विंशस्तम्भः ।
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नतप्राणतारणाच्युतयेवेयकानुत्तरभवान् वैमानिकान् इंद्रसामानिकपार्षद्यत्रास्त्रिशलोकपालानीकप्रकीर्णकलौकांतिकाभियोगिकभेदभिन्नांश्चतुर्णिकायानपि सभार्यान् सायुधबलवाहनान् स्वस्वोपलक्षितचिह्नान् अप्सरसश्च परिग्रहितापरिगृहितभेदभिन्नाः ससखिकाः सदासिकाः साभरणा रुचकवासिनीर्दिक्कुमरिकाश्च सर्वाःसमुद्रनदीगिर्याकरवनदेवतास्तदेतान् सर्वान् सर्वाश्च इदमर्घ्यं पाद्यमाचमनीयं बलिं चरं हुतं न्यस्तं ग्राहय २ स्वयं गृहाण २ स्वाहा अहं ॐ ॥” तदपीछे अच्छीतरें हुत करके प्रदीप्त अग्निके हुए, गृह्यगुरु, तहांसें उठके दक्षिणा स्थित हुई धूके सन्मुख बैठके, ऐसा कहे . ॥
“ ॥ ॐ अहँ इदमासनमध्यासीनो स्वध्यासीनो स्थितौ सुस्थितौ तदस्तु वां सनातनः संगमः अहं ॐ ॥
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ऐसें कहके कुशाग्रतीर्थोदककरके दोनोंको सींचन करे। पीछे वधूका पितामह, वा पिता, वा चाचा, वा भाइ वा मातामह, वा कुलज्येष्ठ, धर्मानुष्ठान करके उचित वेषवाला, वधूवरके आगे बैठे। शांतिक पौष्टिक सें आरंभके विवाह मासपर्यंत, मंगलगान, वादित्रवादन, भोजन तांबूल वस्त्र सामग्री, सदैव गवेसीये हैं. ॥
तदपीछे
गुरु || “॥ ॐ नमोर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यः ॥” ऐसें कहके, प्रथम अक्षतपूर्ण हाथवाला होके वधूवरके आगे ऐसा कहे . ॥
" विदितं वां गोत्रं संबंधकरणेनैव ततः प्रकाश्यतां जनाग्रतः जाना है तुमारा गोत्र, संबंध करनेसेंही; तिसवास्ते प्रकाश करो, arath आगे. । तव प्रथम वरके पक्षीय, अपने गोत्र, अपनी प्रवर, ज्ञाति और अपने अन्वय- वंशको प्रकाश करे । पीछे वरकी माताके पक्षीय,
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