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पशिस्तम्भः। वास पुष्प अक्षतों करके हाथ भरके ॥ “॥ॐ नमः क्षेत्रदेवतायै शिवायै क्षाँ क्षी यूँ क्षौ क्षः इह विवाहमंडपे आगच्छ २ इह बलिपरिभोग्यं गृह २ भोगं देहि सुखं देहि यशो देहि संततिं देहि ऋद्धिं देहि द्धिं देहि बुद्धिं देहि सर्वसमीहितं देहि २ स्वाहा॥”
ऐसें पढके चारों कोणोंमें न्यारे न्यारे वास, माल्य, अक्षत, क्षेप करना; तोरणकी प्रतिष्ठा भी ऐसेंही करनी.
तन्मंत्रो यथा ॥ “॥ॐ ह्रीं श्री नमो द्वारश्रिये सर्वपूजिते सर्वमानिते सर्वप्रधाने इह तोरणस्थासर्वसमीहितं देहि २ स्वाहा॥' ॥ इतितोरणप्रतिष्ठा ॥
तदपीछे वेदिके मध्यमें अग्निकोणेमें अग्निकुंडमें मंत्रपूर्वक अग्निको स्थापन करे।
अग्निन्यासमंत्रो यथा ॥ “॥ॐ रं रां री रूं रौं रः नमोग्नये नमो बृहदानवे नमोनंततेजसे नमोनंतवीर्याय नमोनंतगुणाय नमो हिरण्यरेतसे नमश्छागवाहनाय नमो हव्यासनाय अत्र कुंडे आगच्छ २
अवतर २ तिष्ठ २ स्वाहा ॥” मूल डालके चला हुआ यह अहिंसारूप परम धर्म अपनी दृष्टिके आगे अद्यापि भी है. ब्राह्मणोंके धर्मको वेदमार्गको तथा यज्ञमें होती हिंसाको-खरा धक्का इसी धर्मने लगाया है. बुद्धके धर्मने वेदमार्गकाही इनकार किया था तिसको अहिंसाका आग्रह नही था. यह महादयारूप, प्रेमरूप धर्म, तो जैनकाही हुआ. सारे हिंदुस्थानमेसें पशुयज्ञ निकल गया है, फक्त छेक दक्षिणमें, जहां बौद्ध के जैनकी छाया बराबर पड शकी नही है, तहांही चालु है. इतनाही नहीं परंतु उपनिषदोंका ज्ञानमार्ग सर्वथा सतेज होके, जैनोंके जीवाजीव तथा कर्म धर्मरूप वादपरत्वे, बहोत बहार आया है. ऐसे शंकारूप, बौद्ध तथा जैन धर्मोंने दर्शनोंके परम धर्मका रस्ता किया है, तत्त्वदृष्टिको खरे रूपमें प्रवर्त्तनेका मार्ग किया है, और वर्ण जाति सब भूलाके, मनुष्यमात्रको परम प्रेममें एकात्मभाव प्राप्त करणहार ब्रह्मज्ञानका उदय सूचन किया है." यद्यपि सांप्रत कितनेक अज्ञानी कदाग्रही पुनः हिंसक क्रियाको उत्तेजन कर रहे हैं, तथापि तिसका सार्वत्रिक होना असंभव है, प्रतिपक्षियोर्केविद्यमान होनेसें. ॥
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