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तत्वनिर्णयप्रासादपौष्टिक, सर्व शिरका मुंडन, वेदिकरण, चतुष्किकाकरण, जिनप्रतिमास्थापन, पूर्ववत् ।तदपीछे गृह्यगुरु, जिनेश्वरकी अष्टप्रकारी पूजा करे. चारों दिशायोंमें शकस्तव पाठ करे. पीछे गुरु आसनऊपर बैठ जावे. तब शिष्य श्वेतवस्त्र पहिरके, उत्तरासंगकरके समवसरण और गुरुको, प्रदक्षिणा करके, 'नमोस्तु २' कहता हुआ, गुरुको नमस्कार करके, हाथ जोडके, खडा होयके कहे. “॥ भगवन् प्राप्तमनुष्यजन्मार्यदेशार्यकुलस्य मम बोधिरूपां जिनाज्ञां देहि ॥” गुरु कहे “ ॥ ददामि ॥" शिष्य फिर नमस्कार करके कहे “॥ न योग्योहमुपनयनस्य तजिनाज्ञां देहि ॥” गुरु कहे “॥ ददामि।।” तदपीछे द्वादश (१२) गर्भतंतुरूप, जिनोपवीतप्रमाण दीर्घ (लंबा) कार्पासका, वा रेशमका, उत्तरीयक, परमेष्ठिमंत्र पढता हुआ, जिनोपवीतवत् पहिरावे. पीछे गुरु, पूर्वाभिमुख शिष्यको चैत्यवंदन करवावे. । तदपीछे शिष्य ‘नमोस्तु २' कहता हुआ, सुखसें बैठे गुरुके पगोंमें पडके, फिर खडा होके, हाथ जोडके, ऐसें कहे. “ ॥ भगवन उत्तरीयकन्यासेन जिनाज्ञामारोपितोहं ॥” गुरु कहे “॥ सम्यगारोपितोसि तर भवसागरम् ॥” तदपीछे गुरु सन्मुख बैठे शूद्रके आगे बतानुज्ञा देवे.॥ यथा ॥
सम्यक्त्वेनाधिष्ठितानि व्रतानि द्वादशैव हि ॥ धार्याणि भवता नैव कार्यः कुलमदस्त्वया ॥१॥ जैनर्षीणां तथा जैनब्राह्मणानामुपासनम् ॥ विधेयं चैव गीतार्थाचीर्ण कार्य तपस्त्वया ॥२॥ न निंद्यः कोपि पापात्मा न कार्य स्वप्रशंसनम् ॥ ब्राह्मणेभ्यस्त्वया मानं दातव्यं हितमिच्छता ॥३॥ शेष चतुर्वर्णशिक्षाश्लोकव्याख्यानमाचरेत् ॥ उत्तरीयपरिभ्रंशे भंगे वाप्युपवीतवत् ॥४॥ कार्य व्रतं प्रेतकर्मकरणं वृषल त्वया ॥ युक्तिरेषोत्तरासंगानुज्ञायां च विधीयते ॥५॥
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