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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तत्त्वनिर्णयप्रासादकरना, देशकालादिका चिंतन करना, सौजन्य धारण करना, दीर्घदर्शी होना, कृतज्ञ होना, लजालु होना. परोपकार करना, परको पीडा न करनी, अपना परिभव (तिरस्कार ) होवे तब पराक्रम दिखाना, अन्यदा सर्वत्र क्षांति करनी.। जलाशय, इमशान, देवल, इनमें और तीन संध्यामें निद्रा, आहार, मैथुनादि वर्जना.। कूपमें प्रवेश करना, कूपको उल्लंघन करना, कूपकांठेपर शयन करना, इन सर्वको वर्जना; तथा नावाविना नदीका लंघना वर्जना. । गुरुके आसनशय्यादिके ऊपर, ताडवृक्षके हेठे, बुरी भूमिमें, दुर्गोष्टिमें, कुकार्यमें, बैठना सदाही वर्जना । खाड कूदनी नहीं, दुष्ट स्वामीकी सेवा नहीं करनी; चौथका चंद्र, नग्न स्त्री, इंद्रधनुः, इनको देखना नही.। हाथी, घोडा, नखांवाला, और निंदक, इनको दूरसें वर्जना.। दिनमें संभोग (मैथुन ) न करना, रात्रिको वृक्षका सेवन न करना.। कलह, और कलहका समीप, निरंतर वर्जना.। देशकाल विरुद्ध, भोजन, कार्य, गमन, आगमन, भाषण, व्यय (खरच) और आय (लाभ) ये कदापि न करने. यह पूर्वोक्त उत्तम व्रतादेश चारों वर्णोंका है. ॥२०॥ इति चातुर्वर्ण्यस्य समानोव्रतादेशः ॥ ___ गृह्यगुरु, पूर्वोक्त प्रकारसे शिष्यको व्रतादेश करके, आगे करके जिन प्रतिमाको तीन प्रदक्षिणा करावे. फिर पूर्वाभिमुख होके शक्रस्तव पढे। तदपीछे गृह्यगुरु, आसन ऊपर बैठ जावे, और शिष्य 'नमोस्तु' कहता हुआ गुरुके पगोंमें पडके ऐसें कहे, “भगवन् भवद्भिर्मम व्रतादेशो दत्तः” तब गुरु कहे, “ दत्तःसुगृहीतोस्तु सुरक्षितोस्तु स्वयं तर परं तारय संसारसागरात् ” ऐसें कहके नमस्कार पढता हुआ ऊठके दोनों गुरु शिष्य चैत्यवंदन करें. तदपीछे ब्राह्मणने, विप्र क्षत्रिय वैश्यके घरमें भिक्षाटन करना, क्षत्रि यने शस्त्र ग्रहण करना; और वैश्यने अन्नदान करना. ॥ इत्युपनयने व्रतादेशः॥ __ अथ व्रतविसर्गःकथ्यतेः-अथ व्रतविसर्ग कहते हैं. ॥ ब्राह्मणने आठ वर्षसे लेके सोलां वर्षपर्यंत, दंड और अजिन धारण करके, भिक्षावृत्ति For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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