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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
होनेसें अन्य विषे नियमादिकी अनुज्ञा नही देते हैं, इसवास्ते क्षत्रियोंको जिनोपवीतमें दो अग्र. । वैश्योंने ज्ञानभक्तिकरके सम्यक्त्व धृतिकरके उपासकाचारशक्तिकरके स्वयमेव रत्नत्रय आचरणा । तिन वैश्योंको असामर्थ्य होनेसें अनुपदेशक होनेसें रत्नत्रयका करावणा, और अनुमतिका देणा योग्य नही है; इसवास्ते वैश्योंको जिनोपवीतमें एक अग्र. । थूद्रोंको तो ज्ञानदर्शनचारित्ररूप रत्नत्रयके करणेमें आपही अशक्त है तो करावणा और अनुमतिका देणा तो दूरही रहा । तिनोंको अधम जाति होनेसें, निःसत्त्व होनेसें और अज्ञान होनेसें; इसवास्ते तिनोंको जिनाज्ञारूप उत्तरीयका धारण है । तिनसें अपरवणिगादिकोंको देवगुरुधर्मकी उपासनाके अवसर में जिनाज्ञारूप उत्तरासंगमुद्रा है. ॥ जिनोपवीतका स्वरूप यह है . ॥ स्तनांतर मात्रको चौराशीगुणा करिये तब एकसूत्र होवे, तिसको त्रिगुणा करणा, तिसको भी त्रिगुणा करके वर्त्तन करणा ( वटना ), ऐसें एक तंतु हुआ; इसी रीतिसें दो तंतु और योजन करिये, तब तीनो तंतु मिलाके एक अग्र होवे है । तहां ब्राह्मणको तीन अग्र, क्षत्रियको दो और वैश्योंको एक. । परमतमें तो ऐसा कथन है ॥
“ कृते स्वर्णमयं सूत्रं त्रेतायां रौप्यमेव च ॥ द्वापरे ताम्रसूत्रं च कलौ कार्पासमिष्यति ॥ १ ॥
कृतयुगमें स्वर्णमयसूत्र, त्रेतायुगमें रूपेका, द्वापरयुगमें तांबे का और कलियुगमें कपासका यज्ञोपवीत. ॥ " परंतु जिनमतमें तो, सर्वदा ब्राह्मणोंको सौवर्णसूत्र और क्षत्रियवैश्योंको सदा कार्पाससूत्रही है. ॥ इतिजिनोपवीतयुक्तिः ॥
अथ उपनयनविधि कहते हैं: - उपनीयते वर्णक्रमारोहयुक्ति करके प्राणीको पुष्टिको प्राप्त करिये, इत्युपनयनं । श्रवण, धनिष्ठा, हस्त, मृगशिर, अश्विनी, रेवती, स्वाति, चित्रा, पुनर्वसू । तथा च ।
* आवश्यकेत्वेवमुक्तं ॥ स च ( भरतः ) काकिणीरत्नेन तान् लांच्छितवान्- आदित्ययशसस्तु काकिणीरत्नं नासीत् सुवर्णमयानि यज्ञोपवीतानि कृतवान् । महायशः प्रभृतयस्तु केचन रूप्यमयानि केचित् विचित्रपटसूत्रमयानीत्येवं यज्ञोपवीतप्रसिद्धेिः ॥
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