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त्रयोदशस्तम्भः। भावार्थ:-इसका यह है कि, यतिधर्म जो है सो विषम हैं, तो भी मोक्षका निकट मार्ग है. और गृहस्थधर्म जो है सो सुगम है, तो भी मोक्षका दूर मार्ग अर्थात् चिर पाकर मोक्षको प्राप्त होता है. ॥ तथा जैसे खद्योत (टटाणा) और सूर्य, सर्षप और मेरुपर्वत, घडी और वर्ष, यूका और गज, इनोंमें बडा भारी अंतर है; तैसें गृहस्थधर्म, और यतिधर्ममें अंतर जानना.। यत उक्तमागमे ॥
जह मेरुसरिसवाणं खद्योयरवीण चंदताराणं ॥
तह अंतरं महंतं जइधम्मगिहच्छधम्माणं ॥१॥ आगममें भी कहा है । जैसें मेरु और सरिसव, खद्योत और सूर्य, चंद्र और तारे, इनमें अंतर है, तैसें यतिधर्म और गृहस्थधर्ममें महत् अंतर है. । इसीवास्ते यतिधर्म ग्रहणके पूर्व साधनभूत, अनेक सुरासुर यति लिंगियोंको प्रीणन (पुष्ट-तृप्त ) करनेवाला, भगवान्का पूजन, साधुओंकी सेवा, इत्यादि सत्कर्म करके पवित्र, ऐसे गृहस्थधर्मको कहते हैं. तिस गृहस्थधर्ममें भी, प्रथम व्यवहारका कथन जानना, और पीछे धर्मका व्यवहार भी प्रमाणही है. क्योंकि, ऋषभादि अरिहंत भी गर्भाधान जन्मकाल आदि व्यवहारोंको आचरण करते हैं।
यत उक्तमागमे-जो कहा है आगममें ॥ तएणं समणस्सणं भगवओ महावीरस्स अम्मापिउणो पढमे दिवसे ठिइवडियं करंति तइय दिवसे चंदसूरदसणं कुणति छठे दिवसे धम्मजागरियं जागरंति संपत्ते बारसाहदिवसे विरए इत्यादि। व्यवहारकर्म भगवान् भी आचरण करनेकेवास्ते आगममें कहते हैं.॥ यतः॥ व्यवहारो विहु बलवं जं वंदइ केवली वि छनुमच्छं। आहाकम्मं भुंजइ तो ववहारं पमाणं तु ॥१॥
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