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एकादशस्तम्भः। अब शिष्यप्रति शिक्षा कहते हैं-( नः) हे नः नृशब्दके आमंत्रणविषे यह रूप सिद्ध है, तब हे नः हे पुरुष! बहुमानसहित आमंत्रित शिष्य प्रारंभित अर्थके श्रवण करनेमें उत्साहवान् होता है, इसवास्ते विशेषण कहते हैं। (धियोयो) यु मिश्रणे ऐसा धातु है, इस धातुको अन्य अमिश्रणार्थ भी कहते हैं, इसवास्ते यौति पृथग्भवति' जो पृथक् हो सो कहावे 'युः' छांदस होनेसे गुण नही हुआ, 'न युः अयुः तिसका आमंत्रण हे अयो! हे अपृथक् ! किससे? धियः' बुद्धिसें जिसवास्ते तूं बुद्धिसें अपृथग्भूत है अर्थात् बुद्धिमान् प्रेक्षा पूर्वकारी है, इसवास्ते तेरेको शिक्षा देते हैं. । प्रेक्षावान्के विना तो, रागी द्वेषी मूढ पूर्वव्युद्राहितादिकोंको अयोग्य होनेसें, तिनमें जो उपदेश करना है, सो अंधकारमें नृत्य करनेसमान प्रयास है.। फिर वलिव्युत्पाद्यकाही विशेषणांतर कहते हैं, (प्रचः) 'प्रकृष्टं चरतीति प्रचः' प्रकृष्ट-अधिक जो चरे-प्रवर्ते सो प्रचः प्रकृष्टाचार मार्गानुसारिप्रवृत्तिरितियावत् प्रकृष्ट आचारवालेहीमें उपदेश दिया सफल होता है, और आचारपराङ्मुखोंको शास्त्रका सद्भाव प्रतिपादन ( कथन) करना प्रत्युत ( उलटा) प्रत्यपाय ( कष्ट-पाप) का संभव होनेसे ठीक नहीं है. । किं-क्या शिक्षा देते हैं ? सोही कहे हैं.। ( उदयात् ) उदयं प्राप्तं उदय प्राप्त अनन्यसामान्य गुणातिशय संपदाकरके प्रतिष्ठित आराध्यत्वकरके परमेष्ठिपंचकही है, इत्यर्थः ॥
यहां यह तात्पर्यार्थ है कि, ईश्वर ब्रह्मा विष्णु उपलक्षणसें कपिलसुगतादि देवतायोंके मध्यमें भो पुरुष! ज्ञानवन्! प्रकृष्टाचार ! पूर्वे दिखलाए लेशमात्र गुणातिशयके योगसें आराध्यताकरके परमेष्टिपंचकही प्रतिष्ठित है. इसवास्ते वेही आराधनेयोग्य हैं, वेही उपासना करनेयोग्य हैं, वेही शरणकरके अंगीकार करने योग्य हैं, तिनकी आज्ञारूप अमृतरसही आखादनीय है, पंचपरमेष्ठीसें अतिरिक्त अन्य कोइ आराधने योग्य न होनेसें. जेकर है, तो भी वे आराधनेयोग्य नही है. क्योंकि, तिनके दूषण ( दोष) यहांही पहिले निर्णय करनेसें. जेकर दूषणोंवालोंको भी आराध्यता होवे, तब तो अतिप्रसंगदूषण होवे.। उक्तंच । “कामानुष
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