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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
इत्यादि - अब वाचकवर्गको विचारना चाहिये कि, वेद ईश्वरोक्त कैसें सिद्ध हो सक्ते हैं ? क्या ईश्वर बुद्धिहीन था, और अग्निवरुणादि बुद्धिसहित थे ? जो उनोंसें बुद्धिकी याचना करे ! इससे सिद्ध होता है कि, यह बात ईश्वरने नही कही, किंतु किसी मनुष्यने कही है; जो बुद्धिसें हीन था. बुद्धिकेवास्ते अग्निवरुणादिकी प्रार्थना करता है. यदि कहो ईश्व रने अपने वास्ते नही कही, किंतु श्रुतिद्वारा मनुष्योंको यह शिक्षा करता है कि तुम वरुणादिकों के पास बुद्धिकेवास्ते प्रार्थना करो. तो वैसा वेदकी
"
श्रुतिका पाठ सुनाना चाहिये कि, जहां ईश्वरने कहा हो कि, हे मनुष्यो ! मैं ईश्वर तुमको शिक्षा करता हूं कि, तुम वरुणादिकोसें बुद्धि मांगो । तथा इस कथनमें एक और भी शंका उत्पन्न होवे है कि, ईश्वर सर्वज्ञ, अग्नि वायु आदि जडरूप पदार्थोंसें क्यों प्रार्थना करवावे ? इसीवास्ते वेद सर्वज्ञोक्त नही है, किंतु अज्ञानीयोंका अज्ञानविजृंभित है.
तथा यजुर्वेद अध्याय ४० में जो लिखा है, तिससे निःसंदेह सिद्ध होता है कि, वेद ईश्वरके रचे नही हैं.
अ॒न्यदे॒वाहुः स॑म्भ॒वाद॒न्या॑दद्दुरसंभवात् ॥ धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥ १० ॥
इति
शुश्रुम
यजु० अ० ४० ॥ तृतीयपादभाष्यम्: -- “ इत्येवंविधं धीराणां विदुषां वचः शुश्रुम वयं श्रुतवन्तः ये धीराः नोऽस्माकं तत्पूर्वोक्तं सम्भूत्यसम्भूत्युपासनाफलं विचचक्षिरे व्याख्यातवन्तः " ॥
भाषार्थः – ऐसें पूर्वोक्तविध धीर पंडितोंका वचन हम सुनते हुए, जे धीर पंडित हमको तत् पूर्वोक्त संभूति असंभूति उपासनाका फल कथन करते हुए. -क्या वेद रचनेवाले ईश्वर कहते हैं ? कि, हमने धीर पंडितोंसें ऐसे दोप्रकार उपासनाका फल सुना है, जिनोंने हमको पूर्वोक्त उपासनायोंका स्वरूप कहा है । क्या ईश्वरोंने अन्य बहुत ईश्वरोंसें सुना है ? तब तो वेद कहनेवाले बहुत ईश्वर प्रथम अपठित सिद्ध होवेंगे,
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