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तथा
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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
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नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनुं । येऽअन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ॥ ६ ॥ या इ॒ष॑व यातु॒धाना॑नां॒ ये वा वनस्पती ॥ रनु॑ । ये वा॑वटेषु॒ शेर॑ते॒ तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ॥ ७ ॥ ये वामी रोचने दिवो ये वा सूर्यस्य रश्मिषु । येषामप्सु सद॑स्कृतं तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ॥ ८ ॥ ॥ यजुर्वेदाध्याय १३ ॥ भाषार्थः - 'येकेच' जे केइ 'सर्पन्ति सर्पा लोका पृथिवीमनु गता प्राप्ता' तिनसपको नमस्कार होवे, जे सर्प अंतरिक्ष लोक में वर्तमान है, और जे सर्प 'दिवि' स्वर्गलोक में वर्तमान है, तिन सर्पोंकेतांइ अर्थात् तीनों लोकोंके सपको नमस्कार होवे; सर्पशब्दकरके लोक कहते हैं । ६ । जे दुःखोंको धारण करे, ते यातुधाना - राक्षसादि, तिनोंकी जे जातियां; 'इषवः ' वाणरूप करके वर्ते हैं, अर्थात् नागपाशबाणरूप जे सर्वोकी जातियां है, तिनकेतांइ; जे अन्य चंदनादि वनस्पतिको वेष्टन करके स्थित रहे हैं, तिनकेतis; और जे अन्य बिलोंमें वास करते हैं, तिन सर्पोंकेतांइ नमस्कार होवे । ७ । देवलोकके दीप्तस्थानमें जे हमारे अदृश्यमान सर्प है, जे सर्प सूर्यकी किरणोंमें वसते हैं, और जिन सपका जलमें स्थान है, तिन सर्व सर्पोकेतांइ नमस्कार होवे ॥ ८ ॥
समीक्षाः -- छडी श्रुतिका भाष्य में सर्पशब्दकरके सर्वलोक ग्रहण करे हैं, परंतु यह अर्थ अगली दोनों ऋचायोंसें विरुद्ध है. क्योंकि, अगली ऋचायोंमें सर्पशब्दकरके जे जगत्व्यवहारमें सर्प है, तिनकाही ग्रहण कीया है; नतु लोक. इसवास्ते इन तीनों ऋचायों में सर्पोंकोही नमस्कार करा है. अब वाचकवर्गो ! विचार करो कि, जब परमेश्वरने वेद रचे हैं तो, क्या परमेश्वर सर्पोको नमस्कार करता है ? वा ब्रह्माजी सर्पोको नमस्कार
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