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सतमस्तम्भः। में आयांअनंतर 'विष्वङ्' देवतिर्यगादिरूपकरके विविधप्रकारका हुआ थका, व्यकामत्' व्याप्तवान् हुआ क्या करके? 'साशनानशने अभिलक्ष्य' (साशन) भोजनादिव्यवहारसंयुक्त चेतन प्राणिजात लखीए हैं, (अनशन) तिससे रहित अचेतन गिरिनदीआदिक, येह दोनोंको जैसे होवे तैसें स्वयमेव विविधरूप होके व्याप्त होता भया ॥ ४॥
विष्वङ् व्यकामदिति यदुक्तं तदेवात्र प्रपंच्यते ॥ 'तस्मात् तिसआदिपुरुषसें विराट-ब्रह्मांडदेह उत्पन्न भया । विविधप्रकारकी वस्तु शोभे है इसमें इति विराट् । 'विराजोधि' विराट् देहके ऊपर तिसदेहकोंही अधिकरण करके 'पुरुषः' तिस देहका अभिमानी कोइक पुरुष उत्पन्न होता भया, सो यह सर्ववेदांतोंकरके वेद्य परमात्मा सोही अपनी मायाकरके विरादेह ब्रह्मांडरूप रचके तिसमें जीवरूप करी प्रवेशकरके ब्रह्मांडाभिमानी देवात्मा जीव होता भया. 'सजातः' सो उत्पन्न हुआ विराट् पुरुष 'अत्यरिच्यत-अतिरिक्तोभूत्' विराटसें व्यतिरिक्त देवतिर्यक्मनुष्यादिरूप होता भया. 'पश्चात्' देवादिजीवभावसें पीछे 'भूमिम्' भूमिकों सृजन करता भया, 'अथो' भूमिसृष्टिके अनंतर तिनजीवोंके 'पुरः' शरीर रचता भया ॥ ५॥ _ 'यत्' यदा पूर्वोक्त क्रमकरकेही शरीरोंके उत्पन्न हुए थके, ‘देवाः' देवते उत्तर सृष्टिकी सिद्धिवास्ते बाह्यद्रव्यके अनुत्पन्न होनेकरके हविके अंतर असंभव होनेसें पुरुषस्वरूपही मनःकरके हविपणे संकल्पकरके 'पुरुषेण' पुरुषनामक ‘हविषा' हवि:करके, 'मानसं यज्ञम्' मानस यज्ञकों ‘अतन्वत' विस्तारते-करते हुए. 'तदानीम् ' तिस अवसरमें 'अस्य' इस यज्ञका 'वसन्तः' वसंतऋतुही 'आज्यम्' घृत 'आसीत् ' होता भया, तिस वसंतऋतुकोंही घृतकी कल्पना करते हुए; ऐसेंही 'ग्रीष्म इध्म आसीत्' ग्रीष्मऋतु इध्म होता भया, तिसकोंही इध्मकरके कल्पना करतेहुए; तथा 'शरद्धविरासीत् ' शरदृतु हविः होता भया, तिसकोही पुरोडाशाभिध हविःकरके कल्पना करते हुऐ. ऐसें पुरुषकों हविःसामान्यरूपकरके संकल्पकरके तिसते अनंतर वसंतादिकोंकों घृतादिविशेषरूपकरके कल्पन करा, ऐसे जानना योग्य है.॥६॥
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