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तत्त्वनिर्णयप्रासाद. व्यवहारिकसत्ता पृथिवी आदिक भावोंकी तदापि विद्यमान होनेसें, कैसे नोसत् ऐसा निषेध हो सक्ता है ? ऐसी शंकाका उत्तर कहते हैं (नासीद्रजः) इत्यादि । “ लोकारजांस्युच्यन्तइतियास्कः”। इहां सामान्य अपेक्षाकरके एकवचन है, (व्योम्नोवक्ष्यमाणत्वात् ) व्योमकों वक्ष्यमाण होनेसें, तिस व्योमका हेठला भाग पातालादि पृथिवी अंततक (नासीत्) नही थे इत्यर्थः। (व्योम) अंतरिक्ष,सो भी (नो) नही था (परः) व्योमसे परे ऊपर देशमें द्युलोकादि सत्यलोकांततक (यत् ) जो है, सो भी नही था; इस कहनेकरके चतुर्दशभुवनसंयुक्त ब्रह्मांड भी निषेध करा. अथ तदावरकत्वकरके पुराणोंमें जे प्रसिद्ध है आकाशादिभूत, तिनका अवस्थान-रहनेका प्रदेश, और तिसके आवरणका निमित्त, आक्षेप मुखकरके क्रमकरके निषेध करते हैं. (किमावरीवरिति ) क्या आवरणेयोग्यतत्त्व आवरकभूतजात (आवरीवः) अत्यंत आवरण करे ? आवार्यके अभावसें, तदा आवरकभी नही था इत्यर्थः। 'यद्वा किम् इति प्रथमा विभक्तिः, क्या तत्त्व आवरक आवरण करे ? आवार्यके अभावसें, आब्रियमाणकीतरें; सो भी स्वरूपकरके नही था इत्यर्थः। आवरण करे सो तत्त्व ( कुह ) किस स्थानमें रहके आवरण करे? आधारभूत तैसा देश स्थान भी नही था (कस्य शर्मन् ) किसका भोक्ता जीवके सुखदुःखके साक्षात्कारलक्षणमें, वा निमित्तभूतके हुआ थका तिस आवरकत्वको आवरण करे ? जीवोंके उपभोगवास्तेही सृष्टि है तिस सृष्टिके हुआं थकांही ब्रह्मांडकों भूतोंकरके आवरण होवे; परंतु प्रलयदशामें भोगनेवाले जीवरूप उपाधिके प्रविलीन होनेसें, किसीका कोइ भी भोक्ता संभव नही था; ऐसें आवरणरूप निमित्तके अभावसे सो नहीं घटता है. इस कहनेकरके भोग्यप्रपंचकीतरें भोक्तृप्रपंच भी तिस अवसरमें नही था; यद्यपि सावरण ब्रह्मांडका निषेध करनेसें तिसके अंतर्गत अप्सत्त्वकाभी निराकरण करा, तो भी 'आपो वा इदमग्रे सलिलमासीत् ' इत्यादिश्रुतिकरके कोइक पाणीके सद्भावकी आशंका करे तिसप्रति कहते हैं; (अंभः किमासीदिति ) क्या (गहनम् ) दुःख जिसमें प्रवेश होवे (गभीरम्) और अति अगाध ऐसा पाणी था ? सो भी नही था. 'आपो वा इदमग्रे'
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