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पञ्चमस्तम्भः।
१७५ ज्ञानचरित्रादिगुणैः संसिद्धाः शाश्वताः शिवाः सिद्धौ ॥ तनुकरणकर्मरहिता बहवस्तेषां प्रभुर्नास्ति ॥ २८॥ व्याख्या-ज्ञानदर्शनचारित्रादिगुणोंकरके जे संसिद्ध है, और जे मुक्तिमें शाश्वत शिवरूप है, और शरीर इंद्रियकर्मोकरके रहित है, ऐसे अनंत आत्मा, सामान्यरूपसे एक, और विशेषरूपकरके अनंत, ऐसे तिन सिद्धोंका कोइ प्रभु ईश्वर नहीं है, किंतु आपही ज्योतिःस्वरूप है. ॥ २८ ॥
कर्मजनितं प्रभुत्वं संसारे क्षेत्रतश्च तद्भिन्नम् ॥
प्रभुरेकस्तनुरहितः कर्ता च न विद्यते लोके ॥ २९॥ व्याख्या-कर्मसंयुक्तकर्मजनित जो प्रभुपणा है, सो संसारमें है, राजादि; और क्षेत्रसे विचारिए तो, उर्द्ध अधो तिर्यक् लोकमें है; परंतु इस जगतसे भिन्न, कर्मरहित, शरीररहित, सर्वव्यापक, सृष्टिका कर्ता, एक ईश्वर इसलोकमें नहीं है. क्योंकि, पूर्वोक्त विशेषणोंवाला ईश्वर प्रमाणसे सिद्ध नही होता है. ॥ २९ ॥
अवगाहाकृतिरूपैः स्थैर्यभावेन शाश्वतेलोके ॥
कृतकत्वमनित्यत्वं मेर्वादीनां न संवहति ॥ ३०॥ व्याख्या--अवगाहकरके, आकृतिकरके, रूपकरके, स्थैर्यभावकरके, इस शाश्वते लोकमें कृतकत्वपणा, अनित्यपणा, मेरुआदिपदार्थोकों नही प्राप्त होता है. “ तेषां शाश्वतत्वान्नित्यत्वाच्च तिनोंकों शाश्वते और प्रवाहरूपसें नित्य होनेसें. ॥३०॥
गुणद्धिहानिचित्रात् क्वचिन्महान् कृतो न लोकश्च ॥
इति सर्वमिदं प्राहुः त्रिष्वपि लोकेषु सर्वविदः॥३१॥ व्याख्या--गुणवृद्धिहानिके विचित्र होनेसे समय २. उत्पादविनाशादिके होनेसें, कोइ जगेभी महान्का करा हुआ लोक नहीं है. ऐसें सर्व यह तीनों लोकमें, तीनोंही कालमें, सर्वज्ञ भगवान् कहते है. ॥ ३१ ॥
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