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तत्त्वनिर्णयप्रासाद.
मैं कैसे पालन करूं, तब मत्स्यने कहा कि, हे राजन् ! एक बडा गर्त्ता वा तलाव वा नदी खुदाकर उसमें मुझको पालन कर; सो मत्स्य जब नदीसें भी अधिक बढ गया तब फिर मनुजीने पूछा कि, अब मैं तुम्हारा कैसे पालन करूं ? तब मत्स्यने कहा कि, हे राजन् ! अब मुझको समुद्र में छोड दीजिये, तब मैं नाशरहित हो जाउंगा. यह सुनकर मनुजीने उस नदीको खुदाकर समुद्र में मिलादी तब वहमत्स्य समुद्र में चला गया.
सो मत्स्य समुद्र में जातेही शीघ्रही बडाभारी मत्स्य होगया, और सो फेर उससे भी बहुत बडा क्षण २ में बढने लगा; अथ तदनंतर वो मत्स्य राजा मनुसें जिस वर्षकी जिस तिथीको वो जलोंका आनेवाला था, समूह बतलाकर कहता हुआ कि, जब यह समय आवे तब हे राजन् ! तम एक उत्तम नाव बनवाकर, और उसनावमें सवार होकर, मेरी उपासना करनी; अर्थात् मेरा स्मरण करना. जब सो जलोंका समूह आवेगा, तब मैं तेरी नौकापासही आजाउंगा, और तब फिर मैं तेरा पालन करूंगा.
मनुजी तदुक्तकमसे उस मत्स्यको धारणपोषणकर समुद्र में पहुंचाते भये, सो मत्स्य जिस तिथि और जिस संवत्को जलसमूहका आगमन बतायेथे, मनुजीभी तिसी तिथि और संवत् में नाव बनवाकर उस मत्स्यरूपभगवानकी उपासना करतेभये, तदनंतर सो मन, उसजलोंके समूहको उठा देखकर नावमें आरूढ होजाते हुये, तब वह मत्स्य तिसमनजीके समीपही आकर ऊपरको उछले, तब मनुजीने उन मत्स्य भगवान्को उछलते हुए देखा, तब मनुजी तिसमत्स्यके शृंगमें अपनी नौकाका रस्सा डाल देते भये; तस करके वह मत्स्य नौकाकों खीचते हुए उत्तरगिरि (हिमालय) नामकपर्वतकेपास शीघ्रही पहुंचा देतेभये.
पर्वतके नीचे नौकाकों पहुंचाकर मत्स्यजी कहते भये कि, हे राजन् ! निश्चयकरके मैं तेरेकों प्रलयजल में डूबनेसें पालन करता भया हूं, अब तुम tarai इस वृक्षके साथ बांध दीजिये, तुम इस पर्वत के शिखर पर जबतक जल रहे तबतक रहना, और इसरस्सेको मत खोलना, फिर जब कि यह जल पर्वतके नीचे जैसे २ उतरता जाय तैसे तैसे ही तुमभी पर्व -
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