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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
यतिदोषः -- अस्थानमें विश्राम करना, अथवा विश्राम करनाही नहीं - २२॥ छविदोषः - - अलंकाररहित - २३ |
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समयविरुद्धम् - अपने सिद्धांतविरुद्ध कहना, यथा असत्कारणमें काका मानना सांख्यको; और सत्कारणमें कार्यका मानना वैशेषिकको, समयविरुद्धमिति - २४ ॥
वचनमात्रम् -- निर्हेतुक, जैसे इष्टभूभागमें लोकका मध्य कहना - २५ |
अर्थापत्तिदोषः -- जहां अर्थही अनिष्टकी प्राप्ति होवे, यथा ब्राह्मण मारने योग्य नहीं है, ऐसे वचनमें अर्थसेंही अब्राह्मणघातापत्ति होवे है - २६ | असमासदोपः - जहां समासव्यत्यय होवे, अथवा समासविधिमें समास न किया होवे, सो असमासदोष जानना - २७ ।
उपमादोषः - हीनकों अधिक उपमा देनी, और अधिककों हीनोपमा देनी, यथा सर्पप मेरुसमान, और मेरु सर्षपसमान है. इत्यादि - २८ ।
रूपकदोषः - स्वरूपअवयवोंका व्यत्यय करना, अर्थात् अवयवोंका अवयवीरूपकरके कहना, यथा पर्वतरूप अवयवोंको पर्वतकरके कहना. - २९ ॥
अनिर्देशदोपः - जहां कथन करनेयोग्य पदका एक वाक्यभाव न करिए, यथा इहां देवदत्त स्थाली में ओदन पकाता है, ऐसे कहने में देवदत्त स्थाली में ओदन ऐसे कहना. - ३० ।
पदार्थदोषः - जहां वस्तुके पर्यायवाचिपदको, पदार्थांतरकल्पनाको कहे, जैसें द्रव्यके पर्यायवाची सत्तादि, अर्थात् महासामान्य, अवांतरसामान्य, विशेष, गुणकर्मादिकांको पदार्थपरिकल्पना, उलूक अर्थात् वैशेषिकमतवालेके है - ३१ ।
संधिदोषः - अस्थान में संधि करना, और संधि स्थानमें न करना - ३२ । जो इन पूर्वोक्त दोषोंसें रहित होवे, सो वचन अमल ( निर्मल) जाना. तथा अष्टगुणोंकरके जो संयुक्त होवे, सो वचन सूत्र अमल (निर्मल) सर्वज्ञभाषित जानना. वह अष्टगुण यह है निद्दोसं सारवत्तं च हेउजुत्तमलंकियं ॥ उवणीयं सोवयारं च मियं महुरमेव य ॥ भावार्थः ॥ निर्दोषम् -
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