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चतुर्थस्तम्भः। व्याख्या-कोइ सुगत बुध हमारा पिता नहीं है, और न अन्य देवते हमारे शत्रु हैं, और न तिन देवताओंने हमको धन दिया है, तैसेही जिन अरिहंत महावीरनेभी कोइ हमको धन नहीं दिया है, और न कणाद, गौतम, पतंजलि, जैमिनि, कपिलादिकोंने हमारा किंचित् मात्रभी धन हरा है; किंतु श्रीमहावीर भगवान् एकांत जगत्के हितका करनेवाला है. क्यों कि, तिनके वचन अमल, बत्तीस दूषणोंसे रहित, और अष्टगुणोंकरी संयुक्त हैं. और श्रद्धापूर्वक सुणनेवाले, और धारनेवाले श्रोताजनोंके सर्व पापमलके हरनेवाले हैं; इसवास्ते तिस श्रीमहावीरकी भक्तिवाले हम हुए हैं. अब पूर्वोक्त दूषण और गुण शिष्यजनोंके अनुग्रहकेवास्ते लिखते हैं.
अलियमुवघायजणयं निरच्छयमवच्छयं छलं दुहिलं निस्सारमाधयमूणं पुणरुत्तं वाहयमजुत्तं च ॥ १ ॥ कमभिन्नं वयणभिन्नं विभत्तिभिन्नं च लिंगभिन्नं च अणभिहियमपयमेव य सभावहीणं ववहियं च ॥ २॥ काल जति च्छबिदोसो समयविरुद्धं च वयणमित्तं च अच्छावत्ती दोसो य होइ असमास दोसो य ॥३॥ उवमारूवगदोसो निद्देसपदच्छसंधिदोसो य एए उसुत्तदोसा बत्तीसं होति नायव्वा॥४॥ इत्यावश्यकबृहद्वृत्ती. [भावार्थः ] अनृतम-अणहोया, कहना, जैसें सर्वजगत्का कारण प्रधान प्रकृति है, और सद्भूतका निन्हव (निषेध) करना, जैसें आत्मा नहीं है इत्यादि-१।
उपघातजनकम-जिसमें जीवहिंसाका प्रतिपादन होवे, यथा, वेदविहिता हिंसा धर्मायेत्यादि-२।
निरर्थकम्-वर्णक्रमनिर्देशवत्, यथा “आरादेस्” यहां आर्, आत्, एस्, यह आदेशमात्रकाही कथन है, न कि अभिधेयकरके किसी अर्थकी प्रतीति होवेहै, इसवास्ते निरर्थक; डिच्छादिवत्-३।
* बुधनाम अर्हनकाही है-बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धिबोधादितिवचनात् ॥ . . .
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