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तत्त्वनिर्णप्रासाद
और मत्स्यपुराणके १८२ अध्यायमें ऐसें लिखा है.
[ पार्वतीजी महादेवजीसें पूछती है ] जिस हेतुसें आप इस स्थानकों नहीं छोडते उस उत्तम हेतुकोभी वर्ण कीजिये. यह सुनकर महादेवजीने कहा कि, हे देवि ! पूर्वकाल में ब्रह्माजीके पांच शिर होतेभये, उनमें पांचवाँ शिर सुवर्णकेसमान कांतिवाला था, फिर एकसमय वह ब्रह्माजी मुझसें कहने लगे कि, मैं तुम्हारे जन्मको जानता हूं, तब मैने क्रोधकरके अपने बायें अंगूठेके नखसे ब्रह्माका वह पांचवाँ शिर छेदन करदिया; तब ब्रह्माजीने कहा कि, तुमने विनाही अपराधके मेरा शिर काटडाला है, इसलिये मेरे शापसे तुम कपाली होगे, अर्थात् तुम्हारे हाथमें कपाली चिपक जायगी, तब तुम ब्रह्महत्यासें व्याकुल होकर तीर्थोंपर विचरोगे, उनके शापको सुनकर मैं हिमवान् पर्वतपर चला गया, वहाँ नारायणके पाससे मैंने भिक्षा मांगी, तब नारायणने अपने नखके अग्रभागसे वह मेरे हाथकी कपाली उतारली, उसके उतारतेही उसमेंसे बहुतसी रुधिरकी धारा निकली, और ५० योजनके विस्तारमें वह रुधिरकी धारा फैल गई, और कपालीभी फैलकर बडे अद्भुत भयंकर रूपसें घोर दीखती भई; इसके पीछे वह रुधिरकी धारा दिव्य हजार वर्षोंतक वहती भई, तब विष्णु भगवान् मुझसे कहने लगे कि, यह ऐसा कपाल तुम्हारे हाथमें कैसे लगगया था ? इस मेरे हृदयके संदेहको आप मेरे आगे कहिये; तब मैंने कहा कि, हे देव ! आप इस कपालकी उत्पत्तिको श्रवण कीजिये. पूर्वकालमें हजारों वर्षोंतक ब्रह्माजीने दारुण तपस्याकरके अपने दिव्यशरीरको रचा, उनके तपके प्रभाव से सुवर्णके समान कांतिवाला पांचवाँ शिर होताभया, उन ब्रह्माजीके पांचवें शिरकों मैंने कोधकरके काटडाला, उसी शिरकी यह कपाली है -- इत्यादि.
हरि-कृष्ण, नेत्रविषे रोगी ऐसे हुए दुर्वासा महाऋषिको उर्वशीकेसाथ भोग करनेकी इच्छा हुई, तब उर्वशीने दुर्वासा ऋषिको कहा कि, जेकर तूं अपूर्व यान (असवारी ) में बैठके वर्ग में आवेगा तो, मैं तुझकों अंगीकार करूंगी, यह सुनकर दुर्वासा ऋषि कृष्ण वासुदेवके पास गया, तिन्होंने ऋषिकी स्वागत करी, और आगमनका कारण पूछा तब ऋषिने
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