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चतुर्थस्तम्भः।
१२३ यावत्परप्रत्ययकार्यबुद्धिर्विवर्त्तते तावदुपायमध्ये ॥ मनः स्वमर्थेषु निघठनीयं नह्याप्तवादा नभसः पतन्ति ॥१५॥
व्याख्या-जैसें कदाग्रही कदाग्रहमें अतिप्लुत चलायमान होता है, अर्थात् एक पक्षमें जूठा होकर दूसरेमें आश्रित होता है, दूसरेसें तीसरेमें, एतावता अनवस्थितिवाला होता है, और जैसे मलाहकी बंधी हुई नावा समुद्रमें अतिप्लुत होती है, तैसेंही परके निश्चय किये मात्रमेंही चतुर जो लोक है, सो प्रमादरूप पाणीमें आतिशय भ्रमण करता है, अर्थात् जे लोक अपने मनमें ऐसा समझते हैं कि, हमकों निश्चय करनेकी कुछ जरूर नहीं है कि, यह सत्य है वा असत्य? किंतु जो पूर्वजोंने कहा है, सोइ मान्य है, वे लोक तत्त्वपदार्थके ज्ञानकों कबीभी प्राप्त नहीं होते हैं.॥ इसवास्ते जबतक परके ज्ञानके कार्यमें बुद्धि वर्त्तती है, तबतक उपायमें तत्वपदार्थके ज्ञानमें, और पदार्थोंमें अपना मन निरंतर जोडना चाहिये, अर्थात् अपने मनकों पदार्थोके निर्णय करनेमें प्रवर्त्तावना चाहिये. क्योंकि, आप्तवाद, सत्योपदेष्टाके वचन आकाशसें नहीं गिरते हैं, किंतु बुद्धिसें विचारयुक्ति द्वारा सिद्ध होते हैं कि, येह वचन आप्तके है, और येह अनाप्तके है, इस वास्ते बुद्धिमान् पुरुषकों तत्त्व पदार्थका अवश्य निर्णय करना चाहीये ॥ १४ ॥ १५ ॥ अथ असत् तत्वपदार्थके अग्राह्यपणेका हेतु कहते हैं. यच्चिन्त्यमानं न ददाति युक्तिं प्रत्यक्षतो नाप्यनुमानतश्च ॥ तबुद्धिमान् कोनु भजेत लोके गोशृङ्गतः क्षीरसमुद्भवो न॥१६॥
व्याख्या-जो कथन करा हुआ तत्त्वपदार्थ, जब विचारीए, तब प्रत्यक्ष वा अनुमानसें युक्तिको न देवे, अर्थात् जो युक्तिप्रमाण प्रत्यक्ष अनुमानसें सिद्ध न होवे, सो तत्त्वका कथन कौन बुद्धिमान् सत्यकरके मानेगा ? अपितु कोइभी नहीं मानेगा. जैसे लोकमें गौके शृंगसें प्रत्यक्ष, और अनुमानसें कदापि दूधकी उत्पत्तिका संभव सिद्ध नहीं हो सक्ताहै ॥१६॥ __ अथ ग्रंथकार जे प्रकृतिसेंही विनयवाले नम्र हैं तिनकोंही विनयवंत पुरुष विनयवंत करसक्ते हैं यह कथन दृष्टांतद्वारा सिद्ध करते हैं.
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