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तत्त्वनिर्णयप्रासादहैं, अर्थात् पूर्वोक्त दुषणोंकरके जे संयुक्त हैं, तिनोंका. क्योंकि, पूर्वोक्त साम्राज्यरूप रोग आत्माकों मलिन करने और दुःख देनेवाला है, इस वास्ते वृथाही है ॥ २५॥ अथाग्रे स्तुतिकार असत्वादी और पंडितजनोंके लक्षण कहते हैं. स्वकण्ठपीठे कठिनं कुठारं परे किरन्तः प्रलपन्तु किंचित् ॥ मनीषिणां तु त्वयि वीतराग न रागमात्रेण मनोऽनुरक्तम्॥२६॥
व्याख्या–(परे ) परवादी जे हैं, वे (स्वकण्ठपीठे ) अपने कंठपीठमें ( कठिनं ) कठिन-तीक्ष्ण (कुठारं) कुठार-कुहाडा (किरन्तः) क्षेपन करते हुए ( किंचित् ) कुछक (प्रलपन्तु ) प्रलपन करो, अर्थात् परवादी अप्रमाणिक युक्तिबाधित किंचित् तत्वके स्वरूपकथनरूप कठिन कुठारकुहाडा अपने कंठपीठमें क्षेपन करो-मारो, यद्वा तद्वा वोलो, सत्मार्गके अनभिज्ञ होनेसें, अपने आत्माकी हानि करो, परंतु हे वीतराग ! ( मनीषिणां तु ) मनीषि-पंडित-सबुधिमानोंका तो (मनः) मन-अंतःकरण ( त्वयि ) तेरे विषे (रागमात्रेण) रागमात्र करके (न) नहीं (अनुरक्तं ) रक्त है, किंतु युक्तिशास्त्रके अविरोधि तेरे कथनके होनेसें तेरे विषे पंडितजनोंका मन अनुरक्त है ॥ २६ ॥ - अथाग्रे जे पुरुष अपनेकों माध्यस्थ मानते हैं, परंतु वेभी निश्चय मत्सरी हैं, तिनका स्वरूप कथन करते हैं. सुनिश्चितं मत्सरिणो जनस्य न नाथमुद्रामतिशेरते ते ॥ माध्यस्थमास्थाय परीक्षकाये मणौ चकाचे च समानुबन्धाः॥२७॥
व्याख्या हे नाथ ! ( सुनिश्चितं ) हमारे निश्चित करा हुआ वर्ते है कि (ते) वे जन (मत्सरिणः) मत्सरी (जनस्य) पुरुषकी (मुद्रा) मुद्राकों (न) नहीं ( अतिशेरते ) उलंघन करते हैं, अर्थात् ऐसे जनभी मत्सारयोंकी पंक्ति मेंही निश्चित करे हुए हैं; कैसे हैं वे जन ? (ये) जे (परीक्षकाः) परीक्षक होके और (माध्यस्थ्यम्-आस्थाय ) माध्यस्थषणेको धारण करके ( मणौ ) मणिमें (च) और ( काचे ) काचमें ( समानुवन्धाः) सम अनुबंधवाले हैं.
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