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तृतीयस्तम्भः। अथाग्रे स्तुतिकार भगवंतके शासनकी स्तुति करते हैंयदीयसम्यक्त्वबलात् प्रतीमो भवादृशानां परमस्वभावम् ॥ वासनापाशविनाशनाय नमोस्तु तस्मै तव शासनाय ॥२१॥
व्याख्या-( यदीयसम्यक्त्वबलात्) जिसके सम्यक्तबलसें, अर्थात् जिसके सम्यग् ज्ञानके बलसें (भवादृशानां) तुम्हारेसरीखे परमाप्तजीवनमोक्षरूप महात्मायोंके (परमस्वभावम् ) शुद्धस्वरूपकों (प्रतीमः) हम जानते हैं ( तस्मै ) तिस ( तव ) तेरे (शासनाय ) शासनकेतांइ हमारा (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे, कैसे शासनकेतांई ? (कुवासनापाशविनाशनाय) कुवासनारूपपाशीके विनाश करनेवाला तिसकेतांई.
भावार्थ:-जेकर हे भगवन्! तेरा शासन न होता तो, हमारे सरीखे पंचमकालके जीव तुम्हारे सरीखे परमाप्तपुरुषोंके परम शुद्धस्वभावकों कैसे जानते? परंतु तेरे आगमसे ही सर्वकुंजाना; और तेरे आगमनेही पांच प्रकारके मिथ्यात्वरूप कुवासनापाशीका विनाश करा है, इसवास्ते तेरे शासनकेतांई हमारा नमस्कार होवे.॥२१॥ अथ स्तुतिकार दो वस्तुयों अनुपम कहते हैं
अपक्षपातेन परीक्षमाणा द्वयं द्वयस्याप्रतिमं प्रतीमः॥ यथास्थितार्थप्रथनं तवैतदस्थाननिर्बधरसं परेषाम् ॥ २२॥
व्याख्या-(अपक्षपातेन) पक्षपातरहित हो कर (परीक्षमाणाः) जब हम परीक्षा करते हैं तो, (द्वयस्य) दो जनोंकी (द्वयं) दो वस्तुयों (अप्रतिमं)अनुपम उपमा रहित (प्रतीमः) जानते हैं; हे भगवन् ! (तब ) तेरा (एतत् ) यह (यथास्थितार्थप्रथनं) यथास्थित पदार्थोंके स्वरूप कथन करनेका विस्तार, अर्थात् यथास्थित पदार्थोंके स्वरूप कथन करनेका विस्तार जैसा तैने करा है, ऐसा जगत्में कोइभी नही कर सकता है, इसवास्ते तेरा कथन हम अनुपम जानते हैं. और (परेषां) अन्योंका (अस्थाननिर्बधरसं) अस्थाननिर्बधरस, अर्थात् अन्योंने असमंजसपदाोंके स्वरूपकथनरूप गोले गिरडाये हैं, वेभी उपमारहित हैं, तिनोंके विना ऐसा असमंजसकथन अन्य कोईभी नही कर सक्ताहै. ॥२२॥
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