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तृतीयस्तम्भः। अपाकरण-तिरस्कार-खंडन करेंगे अपितु किसी प्रकारसेंभी खंडन नहीं कर सकेंगे. ॥ १२॥ अत्र कोइ प्रश्न करे कि, यदि अर्हन भगवन् श्री वर्द्धमानका, कोइभी परवादी जिसका किसी प्रकारसेंभी खंडन नहीं कर सक्ते हैं ऐसा सत्योपदेश है, तो फेर अन्य मतावलंबी तिसकी उपेक्षा क्यों करते हैं ? इ सका उत्तर स्तुतिकार श्रीमद्धेमचंद्राचार्य देते हैं.
तदःखमाकालखलायितं वा पचेलिमं कर्मभवानुकूलम् ॥ उपेक्षते यत्तव शासनार्थमयं जनो विप्रतिपद्यते वा ॥ १३॥ व्याख्या-हे जिनेंद्र ! ( यत् ) जो (अयं जनः ) यह प्रत्यक्ष जन (तव) तेरे (शासनार्थं) शासनार्थकी (उपेक्षते) उपेक्षा करता है, (वा) अथवा (विप्रतिपद्यते ) तेरे शासनार्थके साथ शत्रुपणा करता है (तत्) सो, तिस प्राणिका ( दुःखमाकालखलायितं ) पंचम दुःखम कालका खलायितपणा है,-दुःखम कालही तिस जीवके साथ खलकी तरें आचरण करता है, जो सत्य जिनेंद्रके कथन करे मार्गकी प्राप्ति नहीं होने देता है, (वा) अथवा, (भवानुकूलम् ) तिस जीवके भवानुकूल संसारमें भ्रमण करवाने योग्य (कर्म) अशुभ कर्म मिथ्यात्व मोहनीयादि (पचेलिमं ) पक्के हुए, अर्थात् अपना फल देनेके वास्ते उदयावलिमें आये हुए है, तिनके उदयसे जिनेंद्रके कथन करे हुए मार्गकों अंगीकार नही कर सक्ता है, जैसे, ऊंट द्राक्षावेलडीके खानेकी इच्छा नहीं करता है, तैसेंही दुःखम काल खलायितपणेसें और पचेलिम कर्मके उदयसें, यह जन, हे जिनेंद्र ! तेरे मार्गकी उपेक्षा करता है, अर्थात् कल्याणकारी जानके अंगीकार नहीं करता है; अथवा तेरे शासनके साथ शत्रुपणा करता है||१३|| कोई कहेकि, तप करना, और योगाभ्यासादि सत्कर्म करने, तिनके प्रभावसेंही मोक्षकी प्राप्ति हो जावेगी, तो फेर जिनेंद्रके कथन करे मार्गके अंगीकार करनेकी क्या आवश्यकता है? तिसका उत्तर, स्तुतिकार देते हैं. परः सहस्राः शरदस्तपांसि युगांतरं योगमुपासतां वा ॥ तथापिते मार्गमनापतन्तोन मोक्ष्यमाणाअपि यान्तिमोक्षम्१४
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