________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
तृतीयस्तम्भः ।
९५
व्याख्या - हे जिनेंद्र ! ( परशासनेभ्यः ) पर शासनोंसें, कैसें पर शासनसें ? (प्रादेशिकेभ्यः ) प्रमाणका एक अंश माननेसें जे मत उत्पन्न हुए है, अर्थात् एक नयको मानके जे परमत वादीयोंने उत्पन्न करे हैं, तिनका नाम प्रादेशिक मत है. आत्मा एकांत नित्यही है, वा क्षणनश्वरही है, वस्तु सामान्य रूपही है, वा विशेष रूपही है वा सामान्य विशेष स्वतंत्रही पृथक २ है, कार्य सतही उत्पन्न होता है, वा असतूही उत्पन्न होता है, गुण गुणीका एकांत भेदही है, वा एकांत अभेदही है, एकही ब्रह्म है, इत्यादि प्रादेशिक परमतोंसें (यत्) जो ( तव शासनस्य ) तेरे शासनका ( पराजय ) पराजय है, सो, ऐसा है, जैसा ( खद्योतपोद्युतिडम्बरेभ्यः) खद्योतके बच्चे की पांखों के प्रकाश रूप अडंबरसें ( हरि मंडलस्य ) सूर्यके मंडली ( इयं ) येह ( विडम्बना ) विटंबना अर्थात् पराभव करना है, भावार्थ यह है कि, क्या द्योतका बच्चा अपनी पांखों के प्रकाश सूर्यके प्रकाशकों पराभव कर सक्ता है ? कदापि नही कर सक्ता है. तैसेंही, हे जि नेंद्र ! एक नया भास मतके माननेवाले वादी, खद्योत पोतवत् तेरे अनंत नयात्मक स्याद्वाद मतरूप सूर्यमंडलका पराभव कदापि नही कर सक्ते हैं || ८ ||
भगवंतका शासन सर्व प्रमाणोंसें सिद्ध है. अथ, जो ऐसे शासन में संशय करता है, क्या जाने यह भगवंत अर्हन्का शासन सत्य है, वा नही ? अथवा, जो भगवंतके शासन में विवाद करता है कि, यह शसन सत्य न ही है, ऐसे पुरुषकों स्तुतिकार उपदेश करते हैं.
शरण्यपुण्ये तव शासनेऽपि संदेग्धि यो विप्रतिपद्यते वा ॥ स्वादौ सतथ्ये स्वहिते च पथ्ये संदेग्धि वा विप्रतिपद्यते वा ॥ ९ ॥
व्याख्या - हे जिनेंद्र ! ( शरण्यपुण्ये ) शरणागतकों जो त्राण करणे योग्य होवे तिसकों शरण्य कहते हैं तथा पुण्य पवित्र ऐसे ( तव ) तेरे ( शासनेपि ) शासन के हूएभी ( यो ) जो पुरुष तेरे शासन में (संदेग्धि ) संदेह करता है ( वा ) अथवा ( विप्रतिपद्यते ) विवाद करता है, सो पुरुष ( स्वादौ ) अत्यंत स्वादवाले ( तथ्ये ) सच्चे
For Private And Personal