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द्वितीयस्तम्भः। धर्म कहेंगे कि, हे स्त्रियो! पूर्वकालमें तुम सब किसी समय मानससरोवरमें क्रीडा कर रही थीं, उस समय तुह्मारे समीप नारद मुनि आगये थे, उस कालमें तुम अग्निकी पुत्री अप्सरारूप थीं, उस समय तुमने नारदजीको प्रणाम नहीं किया था, और विना प्रणाम कियेही तुमने उस योगीसे यह प्रश्न किया था कि, हे मुने! हमको जगन्नाथ श्रीकृष्ण भर्त्ता कैसे प्राप्त होय उसको कहिये. उस समय तुमको नारद मुनिने श्रीकष्णजीके मिलनेका वर दिया था, और प्रणाम नहीं करनेसे शाप भी दिया था,अर्थात् यह कहा था कि चैत्र वैशाख इन दोनों महीनोंकी शुक्ल पक्षकी द्वादशीके दिन दो शय्यादान और सुवर्णका दान करनेसे दूसरे जन्ममें तुह्मारा निश्चयकरके नारायण पति होगा, और जो कि, तुमने अपने रूप और सौभाग्यके अभिमानसे मुझको प्रणाम विना कियेही प्रथम प्रश्न किया है इस हेतुसे तुझारा इस प्रकारसे वियोग भी होगा कि, तुम चोरोसे हरी जाओगी, और वेश्याभावको प्राप्त हो जाओगी. इसीसे तुम सब नारदीके और श्रीकृष्णजीके शापसे कामसे मोहित होकर वेश्यापनेको प्राप्त होगई हो ॥ इत्यादि
॥ पुनरपि मत्स्यपुराणे ॥ ज्वलत्फणिफणारत्नदीपोद्योतितभित्तिके ॥ शयनं शशिसंघातशुभ्रवस्त्रोत्तरच्छदम् ॥ ५८६ ॥ नानारत्नद्युतिलसच्छकचापविडम्बकम् ॥ रत्नकिङ्किणिकाजालं लम्बमुक्ताकलापकम् ॥५८७॥ कमनीयचलल्लोलवितानाच्छादिताम्बरम् ॥ मन्दिरे मन्दसंचारः शनैर्गिरिसुतायुतः॥५८८॥ तस्थौ गिरिसुताबाहुलतामीलितकन्धरः॥ शशिमौलिसितजोत्स्नाशुचिपूरितगोचरः ॥५८९॥ गिरिजाप्यसितापाङ्गी नीलोत्पलदलच्छविः॥
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