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तत्त्वनिर्णयप्रासाद. उपचारको भी किंचित् साधर्म्यद्वारसें मुख्यार्थका स्पर्शि होनेसे प्रमाणता है. आकाशका जो सर्वव्यापकत्व मुख्य प्रमाण है सो तिस तिस आधेय घटपटादि संबंधि नियत प्रमाणके वशसें कल्पित भेदके हुए प्रतिनियत देशव्यापि करके व्यवहार करते हुए घटाकाश पटाकाशादि तिस तिस व्यपदेशका निबंधन होता है. और तिस तिस घटादि संबंधके हुए व्या. पकपणे करके अवस्थित आकाशको अवस्थांतरकी आपत्ति है, तब तो अवस्थाके भेद हुए. अवस्थावालेका भी भेद है. अवस्थाको तिसमें अविध्वग्भाव होनेसें सिद्ध हुआ किं, नित्यानित्य आकाश है. स्वयंभूमतवा. ले भी नित्यानित्यही वस्तु मानते हैं. 'तथा चाहुस्ते' तीन प्रकारका निश्चय यह परिणाम है. धर्मिका धर्मलक्षण अवस्थारूप है. सुवर्ण धर्मि, तिसका धर्म परिणाम वर्द्धमान रुचकादि. धर्मका लक्षण परिणाम अनागतादि है. यदा यह हेमकार वर्द्धमानकको भांगके रुचककी रचना करता है, तदा वर्द्धमानक वर्तमानता लक्षणको छोडके अतीततालक्षणको प्राप्त होता है. और रुचक तो अनागतता लक्षणको त्यागके वर्तमानताको प्राप्त होता है; और वर्तमानताको प्राप्त हुआ भी,रुचक नव पुराणादि भावको प्राप्त होता हुआ अवस्था परिणामवान् होता है. सो यह तीन प्रकारका परिणाम धर्मिके धर्मलक्षण अवस्था जे हैं, सो धर्मिसें भिन्न भी हैं, और अभिन्न भी हैं; ते धर्मिसें अभेद होनेसें नित्य हैं. और भेद होनेसें उत्पत्तिविनाशविषयत्व है. ऐसें दोनोही उपपन्न होते हैं.
अथ इस काव्यके उत्तरार्द्धका विवरण करते हैं. तन्नित्यमेवैकम् - इत्यादि-ऐसें उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्व सर्व भावोंके सिद्ध हुआ भी, एक आकाशादिक नित्यही है; और अन्यत् प्रदीप घटादिक अनित्यही है; इस प्रकारसें दुर्नयवादापत्ति होवे है. अनंतधर्मात्मक वस्तुमें स्वाभिप्रेतनित्यत्वादिधर्मके सिद्ध करनेमें तत्पर होना, और शेष धर्मों के तिरस्कार करनेमें प्रवर्त्त होना दुर्नयोंका लक्षण है. इस उल्लेखकरके तेरी आज्ञाके द्वेषी तेरे कथन करे शासनके विरोधियोंके प्रलापाः प्रलपितानि असंबद्धवाक्य तिनके हैं. यहां प्रथम आदीपमिति इससे परप्रसिद्धिकरके अनित्यपक्ष उल्लेखके हुए भी जो आगे
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