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॥ गजल ॥ ( चाल रासधारीयोंकी )
जहां व्रजराज कल पावे, चलों सखी आज बावनमें- यह देशीबिना गुरुराज के देखे, मेरा दिल बेकरारी है ॥ अंचलि ॥ ॥ बहिर्लापिका ॥
आनंद करते जगत जनको, वयण सत सत सुना करके - विना० ॥ १ ॥ तनु तस शांत होया है, पाया जिने दर्श आ करके - विना• ॥ २॥ मानो सुर सूरि आये थे, भुवि नर देह घर करके - विना० ॥ ३ ॥ राजा अरु रंक सम गिनते, निजातम रूप सम करके - विना० ॥ ४ ॥ महा उपकार जग करते, तनु फनाह समझ करके - विना० ॥ ५ ॥ जीया वल्लभ चाहता है, नमन कर पांव परकरके - बिना ० ॥ ६ ॥
इत्यादि गुणानुवाद करते हुये सब लोक एकत्र होकर श्रीमहाराजजी साहिबकी सदा यादगारी कायम रखनेके वास्ते, द्रव्य संग्रह करके, स्तूप ( समाधि ) बनाने का निश्वय करके, निरानंद होकर अपने अपने स्थानोंपर चले गये. *
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जिस वखत श्री महाराजजी साहिबका स्वर्गवासका समाचार नगरमें फैलगया, उसही बखत किसी प्रतिपक्षीने पूर्वला वैर लेनेका इरादा करके किसीको स्यालकोट भेजके, गुजरांवाले के "डीप्युटी कमिश्नर" को कल्पित नामसे तार दिलवाया कि, “साधु आत्मारामका मृत्यु जहेरसें हुवा मालूम होता है. और इधर आप वे प्रतिपक्षी, श्री महाराजजी साहिबजीके सेवकोंसे मानके कहने लगे कि, " यद्यपि हमारा तुमारा अनुष्ठान मिलता नहीं है, तथापि श्री आत्मारामजी जैन साधु कहाते थे, तुम हम दोनोंही जैनी कहातेहैं; इनका मरना क्या वारंवार होना है ? तथा पिछली अवस्थाका हमारा भी कुच्छक हक है, इस वास्ते इनके इस निर्वाण महोत्सव में हम भी, भाग लेवेंगे. तब श्रीमहाराजजी साहिबके सेवकोंने, उनकी वक्रता, और खलता बिना समझे, सरल स्वभावसें उनका कहना मंजूर कर लिया. परंतु यह नहीं विचारा कि, यद्यपि इस वखत यह हमारे सज्जन होकर आये हैं, तथापि वास्तविकमें तो यह दुर्जनही है. इस वास्ते सर्पकी तरह इनका विश्वास करना, दुःखदायी है.
यतः - दोजीहो कुडिलग, परछिडगवेसणिक्कत लिच्छो। कस्स न दुज्जणलोओ, होइ भुयंगुव्व भयहेऊ ॥ १ ॥ उवयारेण न थिप्प न परिचएण न पिम्मभावेण । कुइ खलो प्रवया, खीरा इपोसिय हिव्व ॥ २ ॥
* गुजरांवाले गाम बहार बड़ा भारी स्तूप ( छत्री ) बन गई है. लोकोंको नियम है.
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जिसके दर्शनका सर्व जातिके बहुत