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श्रीसोमसुन्दरसूरिविरचिता-उपदेशमालान्तर्गता
कालिकाचार्यकथा । [ रचनासंवत् १४५५७-१४९३ ]
तुरमिणी नगरीई दत्त ब्रामणिई मुहुंतइं राज्य आपणइ वसि करी आगिल जितशत्रु राजा काढी आपणपई राज्य अधिष्ठिउं । धर्मनी बुद्धिं घणा याग यज्या । एक वार दत्तना माउला श्रीकालिकाचार्य गुरु भाणेज राजा भणी तीणई नगरि आविया । मांमु भणी दत्त गुरु कन्हई गयु । यागर्नु फल पूछिवा लागु । गुरे कहिउं-जीवदया लगे धर्म हुई। दत्त कहई-यागर्नु फल कहु । गुरे कहिउं-हिंसा दुर्गतिनुं हेतु हुइ । पेलं कहइ-आवडउं का कहु, यागनूं फल कहु । गुरे मरण आंगमीनई कहिउँ-यागनूं फल दुर्गति कहीइं। दत्त कहइं-इउं नरगि जाएसि !। गुरे कहिउं-कुण संदेह ! । सातमई दिहाडई कुंभीमांहिं पचीतओ नरगि जाएसि । किसिउं अहिनाण ! । सातमई दिहाडइं ताहरई मुखि विष्टा पडिस्यि-ए अहिनाण । दत्ति कहिउँ-[तउं] मरी किहां जाएसि ? । गुरे कहिउ-देवलोकि जाइसु । तउ दत्तइं रीसाविई गुरु पापती जण मुक्या । चीतवइ छई-सातमई दिहाडइं गुरु ज मरस्यि । इसिउं चीतवी घरमाहिं पइंसी रहिओ । राजाई मार्ग चोखलाविया । तिहां पुष्प प्रकर कराविया । एकई मालीइं गाढई काजि ऊपनइ विष्ठा [मार्ग]मांहि करी ऊपरि फूल डालं लांषिउं । ते दत्त आठमा दिहाडानी भ्रांतिं सातमई ज दिनिं गुरु मारिवा नीसरिउ । घोडानु पग विष्टा ऊपरि पडिओ। विष्टा उछली तेह्नई मुहुडई पडी । बीहनु, पाछओ वलिओ। सामंत मंडलीके तेह ऊपरि विरक्त हंते बांधि कुंभीमाहिं पचीतु नरकिं गिओ। सामंते वली आगिल जितशत्रु राजा थापिउ । तीणई श्रीकालिकाचार्य पूज्या । चारित्र आराधी देवलोकि पुहता । जिम कालिकाचार्ये साचलं बोलिडं तिम अनेरई ऊं धर्म साचउंज कहिवं॥
इति कालिकाचार्यकथा संपूर्णा ॥
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