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कालिकाचार्यकथा ।
११७ -ए छुरी भनइ कचोलउ सहित लेख आज आव्या छइ । काइ कारण लगी ते राजा रूठउ माहरउ मस्तक मागइ, तथा आ देसना बीजा छन्नवइ मझ समान राजाना पणि । एहवं रुद्र आदेस तेह माहि लख छइ ॥२०॥
को नरउ परवसत्तं, न उणो दुक्खं च जीवहरणाओ ।
आणाभंगो मरणं, मह किण्हमुहं अउ(ओ) जायं ॥२१॥
-भगवन् | नरक कुण परेवसपणुं । जीवहरण उपरांत दुख नही। नरेंद्रनी आज्ञाखंडन तेह मरण । एक पासइ राजानी आज्ञा मारवानी, हुं जीववा वांछु । तेह भणी माहरूं मुख कालउ ॥२१॥
ठाणलोहेण मरणं, किं पावह कुपुरिसु व्य मुहडवरा।।
सुपुरिस सिंहगय व्व [१], ठाणे य ठाणे य सम्माणं ॥२२॥
—अवसर जाणी सुगुरु तेह प्रति कहइ, स्युं ? अहो सुभटो कापुरिषनी परि स्थानकनइ लोभइ मरण सीध पामउ छइ ! सत्पुरुष सिंह हस्तीनी परि स्थानक स्थानक सन्मान लहइ । यतः
" त्रयः स्थानं न मुश्चन्ति, काकाः कापुरुषा मृगाः ।
स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते, सिंहाः सत्पुरुषा गजाः" ॥ -तम्हा भला सुभट सुरवीर अकालमरण सीध पामउ ! मझ पूठि आवउ । इस्यउ कहइ हुँतउ ॥२२॥
तो सव्वे पच्छनोसरणं काउ(ऊ)ण सरिणो वीरा ।
उत्तरिऊण य सिंधु, सुरदृदेसम्मि संपत्ता ॥२३॥ ---तउ ते वीर सूर सर्व सामंत प्रछन्नं छाना । सूरि भणीइ आचार्य तेहy सरिण करी। सिंधुनदी ऊतरी । अविछन्नपयाणे सोरहदेसमाहि आव्या ॥२३॥
वासारत्ते पत्ते, गइविग्ध[क]रे तओ भणइ भयवं ।
चिट्ठह नियनियठाणे, संमिलिया जाव वासन्तं ॥२४॥
-तेतलइ वर्षाकाल आव्यउ । चाली हाली कोइ न सकइ । कर्दमाकुल प्रथ्वी हुई। मेह वरसवा लागा। तणइ अवसर भगवंत तेह प्रति कहइ । अहो सुभटो ! संमित हुता आपणइ आपणइ थानक रहउ । जासीम वर्षाकालनउ प्रांत । तहत्ति करी ते सर्व तहां रहाया ॥२४॥
वासंते संदिट्ठा, सव्वे ते वजरंति भो भयवं! ।
अम्हे संबलि(ल)रहिया, बलवंतो पहि कहं जामो ? ॥२५॥
-पछइ वर्षाकालनइ प्रांति ते बोलाव्या हुंता इस्युं कहइ । अहो भगवन् ! अम्हे संबलि विणु मालवा सीम किम जाऊ । संबलि खूटा ॥२५॥
सूरीहिं तओ सासणदेवीवरदिनचू(चु)नजोगेण ।
निप्पायंत(यमइ) महंत, कणयमयं इटियापायं ॥२६॥ –ते वात सांभली सुहगुरे सासणदेवी दत्त चूर्णनइ जोग तत्काल सुवर्णमय इटवाह कीधउ ॥२६॥
गहिउ(ऊ)ण संबलपलं, मुमालवं पप्प मालवं पत्ता ।
ते सव्वे नरनाहा, माइप्पो एस सुगुरुणं ॥२७॥
-यथाजोगि संबल लेइ सुमालव भणीइ लक्ष्मीलव पामी ते नरनाथ मालवइ पहुता । ए सर्व महात्म्य सुगुरुर्नु जाणिवो ॥२७॥
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