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स्वतंत्रता संग्राम में जैन पर इन वीरांगनाओं को केवल सेवा से सन्तोष कैसे होता। उन्होंने नेताजी के पास प्रार्थना पत्र भेजा कि, "हम सैनिक शिक्षा प्राप्त कर चुकी हैं। हमारी शिक्षा सन्तोषजनक रही है। हमें मोर्चे पर जाने की आज्ञा दी जावे।"
नेताजी ने इन्हें बहुत समझाया। युद्ध क्षेत्र की कठिनाइयाँ बतायीं, पर इन वीरांगनाओं का यही उत्तर था, "हम झाँसी की रानी रेजीमेन्ट की सैनिकाएँ हैं। हमारी सेनानी भी 'लक्ष्मी' है। हम अवश्य युद्ध करेंगी।" अन्त में नेताजी ने उन्हें आज्ञा दे दी। इन वीर रमणियों ने 16 घण्टे तक ब्रिटिश फौजों से युद्ध किया, ऐसा विकट कि अन्त में ब्रिटिश फौज को पीछे हटना पड़ा।
मेरी समझ में नहीं आता कि जब भारतीय नारी में इतना साहस, आत्मत्याग एवं ज्ञान है तो वह राजनैतिक क्रान्ति में भाग वयों न ले ? यदि हममें कुछ अभाव है, कमजोरी है तो इसका यह अर्थ नहीं कि हम योग्य नहीं बन सकतीं। शिक्षा एवं अभ्यास से जो जानवर भी सीख जाते हैं तो क्या हम पशुओं से भी गयी-बीती हैं ? जबकि हमारी कई बहिनें इस स्वातन्त्र्य युद्ध में भाग ले रहीं हैं तो क्या हम उनसे भी शिक्षा नहीं ले सकते ? प्रत्येक बहिन इन देवियों को अपने मार्ग का प्रकाश स्तम्भ बनावें एवं आगे बढ़ें, देश की राजनैतिक क्रान्ति में अवश्य भाग लें ताकि हमारी आगामी पीढ़ी गर्व से माथा ऊँचा कर कह सकें कि हमारे भारत में नारियाँ पुरुषों की सच्ची अर्धांगिनी रहीं हैं। पारिवारिक समस्याओं के साथ ही साथ राजनैतिक समस्याओं के सुलझाने में भी उन्होंने अतीत की नारियों की भाँति पुरुषों की सदा सहायता की। बहनों उठो! एवं कवि के इन शब्दों को याद करके आगे बढ़ो। देश की राजनैतिक क्रान्ति में भाग लो।
जिसे न निज गौरव तथा देश का अभिमान है। वह नर नहीं नरपशु निरा, जीवित मृतक समान है।।
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संविधान, यदि अपरिवर्तनशील और गतिहीन है तो चाहे वह कितना भी अच्छा और पूर्ण क्यों न हो, उपयोगी नहीं रह सकता। वह पुराना पड़ जाता है और धीरे-धीरे अनुपयोगी हो जाता है। जीवंत संविधान को तो अनिवार्यतः विकासशील होना चाहिए, उसमें अनुकूलशीलता, लचीलापन और परिवर्तनशीलता के गुण होने चाहिए।
-पं० जवाहर लाल नेहरू (संविधान सभा, 8 नवम्बर, 1948)
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