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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 238 स्वतंत्रता संग्राम में जैन महोपदेशक, विद्याभूषण पं0 रामलाल जी प्रतिष्ठारत्न से वह बनारस का अध्ययन छोड़ बीना आ गये थे, अशोकनगर, पं0 परमानन्द जी साहित्याचार्य बालाविश्राम मातृभूमि पुकार के सामने वह आकर्षण भी अशक्त आरा, पं0 बालचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री (सिद्धान्त ही सिद्ध हुआ। पच्चीस-छब्बीस साल की युवावस्था ग्रन्थों के सम्पादक-अनुवादक) हैदराबाद, में अपनों की सारी चिन्ता छोड़कर बंशीधर जी पं0 पद्मचन्द्रजी शास्त्री, बड़ा मलहरा, डॉ0 पं0 स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। देश की चिन्ता अपनी दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्य, पं0 गुलझारीलाल सारी चिन्ताओं से ऊपर हो गई और मातृभूमि की पुकार जी न्यायतीर्थ, सागर, पं0 दुलीचन्द्र शास्त्री बीना के सामने घर गृहस्थी की सारी मनुहार बिखर कर रह अदि विद्वान् यहीं की देन हैं। गई। चाहे 1931 का असहयोग आन्दोलन हो या 1937 पंडित जी की प्राथमिक शिक्षा स्थानीय प्राईमरी के एसेम्बली के चुनाव हों, 1941 का व्यक्तिगत स्कूल में कक्षा 4 तक हुई। चौथी कक्षा पास कर स सत्याग्रह हो या 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन हो, आपको पूज्य पं0 गणेशप्रसाद जी वर्णी अपने साथ बंशीधर ने तन, मन और धन सब कुछ उस महायज्ञ वाराणसी ले गये। वहाँ स्याद्वाद जैन महाविद्यालय में में होम करते समय कोई संकोच नहीं किया। जैसी उनकी छत्र-छाया में 11 वर्ष तक व्याकरण, साहित्य, निष्ठा और समर्पण के साथ उन्होंने ज्ञान की दर्शन और सिद्धान्त का उच्च अध्ययन किया। आपने आराधना की थी, वैसी ही निष्ठा और समर्पण के साथ प्रथम श्रेणी में ही सभी विषयों में उत्तीर्णता पाप्त की मातृभूमि की सेवा में भी उन्होंने अपने आप को नियोजित है। व्याकरणाचार्य परीक्षा में तो प्रावीण्य सूची में द्वितीय ' कर दिया। स्थान प्राप्त किया है। नगर कांग्रेस-कमेटी की अध्यक्षता से लेकर 1928 में आपका विवाह बीना में शाह मौजीलाल प्रान्तीय कांग्रेस-कमेटी की सदस्यता तक उन्हें जब, जहाँ, जो काम सौंपा गया उसे उन्होंने अपने व्यक्तिगत जी की सुपुत्री लक्ष्मीबाई के साथ सम्पन्न हुआ। पण्डित जी की धर्मपत्नी स्वभावतः उनकी समान-गुणधर्मा थीं। स्वार्थों से परे, एक अनोखी गरिमा के साथ निभाया। उनमें गाम्भीर्य, सहज स्नेह, वात्सल्य, उदारता, दयालुता, 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में पंडित बंशीधर जी की भूमिका इतनी स्पष्ट रही, उनका योगदान ऐसा सहनशीलता, अक्रोध, अमान, अलोभ जैसे गुण अनुकरणीय रहा और उनका सेवा-संकल्प इतना दृढ़ विद्यमान थे। अस्वस्थ होने पर भी वे पण्डित जी की रहा कि अपने ही साथियों में उदाहरण बनते चले गए। दिनचर्या और आतिथ्य में कभी शैथिल्य नहीं करती कितनों ने उन विषम परिस्थितियों में उनसे प्रेरणा प्राप्त थीं। कुटुम्बियों और रिश्तेदारों के प्रति उनके हृदय में + की और कितने घरों में उनकी सहायता से मनोबल अगाध स्नेह एवं आदर रहा। यह देव का विडम्बना के दीप जलते रहे. इसकी कोई सूची न कमा बना, है कि वे 58 वर्ष की आयु में ही कालकवलित हो और न बन सकेगी। जहाँ सेवक ही मौन-व्रती हो वहाँ गयीं। अपने पीछे वे तीन सुयोग्य पुत्रों तथा तीन सुयोग्य सेवा-कार्यों का लेखा-जोखा हो भी कैसे सकता है। पुत्रियों के भरे-पूरे परिवार को छोड़ गईं। तथापि इस आन्दोलन में आपने म0प्र0 स्व0 सै) के स्वाधीनता संग्राम में पं0 जी का योगदान अनसार 10 माह का कारावास भोगा था। अविस्मरणीय है। जवानी की तरुणाई अभी प्रस्फुटित आज तो रिवाज बदल गए हैं। देशसेवा एक हो ही रही थी कि भारत माता के मुक्ति-संग्राम का लाभजनक व्यापार बनकर रह गई है। परन्तु 1921 बिगुल पूरे जोर से बज उठा। गृहस्थी के जिस आकर्षण से 1946 तक के पच्चीस साल स्वाधीनता-संग्राम के For Private And Personal Use Only
SR No.020788
Book TitleSwatantrata Sangram Me Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain, Jyoti Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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