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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथम खण्ड 137 के आंदोलन में नेताओं की गिरफ्तारी के समय आप 'वरांग-चरित' की भूमिका में अनुवाद-गत' भी गिरफ्तार कर लिए गये और कई वर्ष तक आप शीर्षक से आपने लिखा है किसरकार के मेहमान रहे। वहाँ से निकलने के बाद भी 'सन् 1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह का आप कांग्रेस में सक्रिय कार्य करते आ रहे हैं। .... संचालन करते हुए जब जुलाई के महीने में नजरबंद कुछ समय के लिए आप आरा के जैन कालेज में होने पर जेल में विराम मिला तो पुन: अपने जीवनव्यापी भी प्रोफेसर हो गये थे, लेकिन एक दिन वहाँ के व्यवसाय की स्मृति आयी। फलतः जेल के अधिकारियों प्रिंसिपल के द्वारा राष्ट्रीय नेताओं की शान में कछ से चर्चा करके मैंने पूज्य भाई पं0 कैलाशचन्द्र जी को अपशब्द कहने पर तत्काल कालेज छोड़ दिया। इस लिखा कि वे कतिपय पुस्तकों के साथ मेरे महानिबन्ध पर कालेज के सारे विद्यार्थियों ने हडताल कर दी। "प्राचीन भारत में भूस्वामित्व'' के लिए शोध की गयी तीन दिन तक अधिकारियों के अनवरत प्रयत्नों के सामग्री तथा वरांग-चरित के प्रारब्ध अनुवाद को भी बाबजद भी जब हडताल न खली तो आपने ही जमा करा देवें। क्योंकि जब भाई ने इसकी भूमिका विद्यार्थियों को समझाकर संस्था के हित की दृष्टि से के अनुवाद के विषय में मुझसे कुछ पूछा था तभी हड़ताल खुलवाई। आरा से आकर यू0पी0 के शिक्षामंत्री से मेरे मन में इसका भारती में रूपान्तर करने की भावना बा) सम्पूर्णानन्द जी आदि के कहने पर आप पुनः हा गया था तथा सन् 40 का गामया में सद्यः समागत विद्यापीठ में अध्यापन कार्य करने लगे हैं।' संघ के प्रधान कार्यालय चौरासी, मथुरा में इसका मंगलाचरण भी किया था किन्तु इसके बाद ही राष्ट्रपिता महापुरुषों का जेल जाना भी लोककल्याण के गांधीजी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह की चर्चा जोर से प्रारम्भ लिए होता है। जेल के दिनों में आपने 'वरांग-चरित' कर दी थी और वर्षा समाप्त होते-होते ही वह आरम्भ ग्रन्थ का हिन्दी में अनुवाद किया। आपका विचार था भी हो गया था। फलतः विद्यापीठ की नीति के अनुसार कि हिन्दी का नाम हिन्दी न होकर 'भारती' होना हम पीठ के अध्यापक तथा छात्र इसके संगठन में लग चाहिए। यह आपका मौलिक चिन्तन कहा जाना चाहिए। गये और मूल-वरांगचरित के समान उसकी अनुवाद आपके ही शब्दों में कल्पना को भी तिरोहित होना पड़ा। जब उक्त 'उत्तर भारत की भाषा का हिन्दी' नाम भ्रामक पुस्तक-पत्रादि जेल द्वार पर पहच ता आध चे तो अधिकारियों ने है। इस नाम का प्रयोग उन्होंने (विदेशी यात्री-मुस्लिम उन सबको महीनों रोके रखा और बार-बार कहने पर विजेता) किया है जो इस देश तथा इसकी संस्कृति अन्त में मझे प्रथमगच्छक और वरांगचरित पजा-पाठ और भाषा से अपरिचित थे। उन्होंने अज्ञान में एक की संस्कृत पुस्तकें समझकर दे दिये, क्योंकि उन्हें प्रान्त सिन्ध (हिन्द) का नाम देश पर लाद दिया तो आशा थी कि इनको पढ़कर मेरी राजद्रोह की प्रवृत्ति विश्वमान्य प्रथा के अनुसार यहां के वासियों को बढ़ेगी नहीं। हिन्दू तथा उनकी भाषा को हिन्दी कह दिया। यह यतः कागज सुलभ नहीं था। अत: एक बार राष्ट्र 'भारत' है तो राष्ट्रभाषा भी 'भारती' ही होनी पूरा ग्रन्थ पढ़ गया। पढ़ जाने के बाद फिर समय काटने चाहिए, क्योंकि जर्मनी की जर्मन, फ्रांस की फ्रैंच, का प्रश्न हुआ और काफी प्रयत्न करने पर अपने लिए इंग्लैण्ड की इंगलिश, रूस की रसियन आदि भाषाएं जमा हुयी कोरी कापियों में से दो-तीन पा सका। हैं। सांगोपांग-विवेचन के लिए दृष्टव्य लेखक का तीन-चार सर्ग लिख पाया था कि मेरे ऊपर राजद्रोह लेख। (जनवाणी '49)' उभारने के लिए मुकदमा चलने लगा और दूसरे-चौथे For Private And Personal Use Only
SR No.020788
Book TitleSwatantrata Sangram Me Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain, Jyoti Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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