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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 54 स्वतंत्रता संग्राम में जैन साथियों के पास जो पत्र भेजा था, उसका सार कुछ ऐसा था - भाई मरने से डरे नहीं, और जीवन की भी कोई साध नहीं है, भगवान् जब, जहाँ, जैसी अवस्था में रखेंगे, वैसी ही अवस्था में सन्तुष्ट रहेंगे।' इन दो युवकों में से एक का नाम था मोतीचंद और दूसरे का नाम था माणिकचन्द्र या जयचंद। इन सभी विप्लवियों के मन के तार ऐसे ऊँचे सुर में बँधे थे, जो प्रायः साधु और फकीरों के बीच ही पाया जाता है।' (द्र०-'जैन जागरण के अग्रदूत', पृष्ठ 366-67) कैसा आत्म-सन्तोष, कैसी निश्चिन्तता और मृत्यु के प्रति कैसी निष्कपट उपेक्षा का भाव। यह किसी जैन धर्मानुयायी में ही सम्भव है। - सेठी जी अपने इस जांबाज और वफादार शिष्य को बहुत स्नेह करते थे, इनकी मौत पर उन्हें बहुत सदमा पहुंचा। मोतीचन्द्र की पवित्र-स्मृति में सेठी जी ने अपनी कन्या का विवाह महाराष्ट्र के एक युवक से इस पवित्र भावना से कर दिया था कि 'मैंने जिस प्रान्त और जिस समाज का सपूत देश को बलि चढ़ाया है, उस प्रान्त को अपनी कन्या अर्पण कर दूँ। सम्भव है उससे भी कोई मोती जैसा पुत्ररत्न उत्पन्न होकर देश पर न्योछावर हो सके।' मोतीचंद के जयपुर विद्यालय के सहपाठी और जेल-जीवन के साथी, सम्प्रति बम्बई प्रवासी, श्री कृष्णलाल वर्मा ने 'अमर शहीद श्रीयुत् मोतीचंद शाह के संस्मरण' शीर्षक से अनेक संस्मरण लिखे हैं, जो 'क्रान्तिवीर हुतात्मा मोतीचंद' पुस्तक में पृष्ठ 45 से 73 तक छपे हैं। 'सन्मति' (मराठी) के अगस्त 1957 के अंक में भी ये संस्मरण छपे हैं। उनमें से कुछ संस्मरण यहाँ प्रस्तुत हैं। मोतीचंद ने विद्यार्थी जीवन में, जब वे क्रान्तिकारियों में शामिल हो गये थे, पर्युषण में दस उपवास किये थे। जेल में वर्मा जी ने पूछा-'आपने उपवास क्यों किये थे?' मोतीचंद ने कहा-'ऐसा तो कोई नियम नहीं है कि राष्ट्रीय कार्यकर्ता धर्म कार्य न करें और यदि दूसरी दृष्टि से देखा जाये तो ये धार्मिक व्रत, उपवास उस कठोर जीवन के लिए तैयारी ही हैं, जो राष्ट्रीय सेवक के लिए आवश्यक हैं। राष्ट्रसेवक को, जो षड्यन्त्रकारी पार्टी का सदस्य हो, हर तरह की तकलीफ सहन करने की आदत डालना चाहिए। उसे भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, मार या और भी सभी तरह के दु:ख, जिनकी सम्भावना हो सकती है, हँसते-हँसते सहने की आदत होना चाहिए। जैनधर्म में जो बाईस परीषह बताये गये हैं, उन सभी को जो सानन्द सहता है और राष्ट्र को आजाद करने के काम में लगा रहता है, वही सच्चा राष्ट्र सेवक है, वही सच्चा साधु है, वही सच्चा त्यागी है।' (पृष्ठ-60) वर्मा जी के यह पूछने पर कि महन्त के समान निर्दोष व्यक्तियों को मारने से क्या मिलता है? मोतीचंद ने कहा-'पार्टियाँ चलाने के लिए धन की जरूरत है। वह धन ऐसे व्यक्तियों से ही जबरदस्ती मारकर या लूट कर प्राप्त किया जा सकता है। यह माना कि ऐसे लोग सीधे किसी अपराध के अपराधी नहीं होते, परन्तु उनका यह अपराध क्या कम है कि वे देश के काम के लिए धन नहीं देते। अगर कोई सरकारी अधिकारी इनके पास जाता है तो बड़ी खुशी से उनके लिए थैली का मुँह खोल देते हैं, परन्तु देशभक्त की बात छोड़ो, किसी गरीब और लाचार आदमी को भी दो पैसे निकालकर देते इनकी त्योरियों पर बल पड़ जाता है।' ___ मैंने पूछा - 'देश में लाखों धनवान तो हैं, फिर बेचारे महंत को ही आप लोगों ने क्यों पसन्द किया?' For Private And Personal Use Only
SR No.020788
Book TitleSwatantrata Sangram Me Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain, Jyoti Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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