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लेखकीय
स्मृति हरदम मधुर होती है। वह प्रतिक्षण स्मृति-पटल पर न रहती हुई भी कभी-कभी पुनर्नवा होकर भावोद्रेक का हेतु बन जाती है। वहाँ काल का भेद, अभेद में परिणत हो जाता है । जब हम दोनों भाई [धनमुनि एवं चन्दन मुनि पूज्य पिताजी केवलचन्द्रजी स्वामी के सान्निध्य में रहा करते थे और उनके इङ्गितानुसार अपनी जीवन दिशाओं में बढ़ा करते थे, अहा ! वह समय कितना निश्चित एवं निगतङ्क था ! अध्ययन, चिन्तन एवं मनन में ही ज्यादातर समय बीतता था। जो कुछ करना था वह दोनों भाई साथ-साथ ही किया करते थे।
वि० सं० १९६४ में बीकानेर चातुर्मास में आचार्य श्री तुलसी के हम साथ थे । वृहद् व्याकरण का अध्ययन उसी साल पूर्ण हुआ था तथा न्याय के अध्ययन की शुरूआत हुई थी। सं० १९६५ का श्री केवलचन्द्र जी स्वामी का चातुर्मास मोमासर [ बीकानेर राज्यान्तर्गत ] निश्चित हुआ था । वहां हम दोनों भाइयों को भिक्षु-शब्दानुशासन की लवुवृत्ति तत्काल तैयार करने को दी गई थी, जिसका प्रारम्भ मुनि अवस्था में आचार्य श्री ने स्वयं किया था। उम कार्य को दोनों भाइयों ने मिलकर, जैसे-'सहोदरौ केवल वन्द्रनन्दनौ, नाम्ना प्रसिद्धौ धनराजचन्दनौ' सम्पन्न किया । संस्कृत गीतिकाएं
उसी चातुर्मास में ज्येष्ठ भ्राता मुनि श्री धनराजजी ने नव आचार्यों के स्तवन रूप नव संस्कृत गोतिकाए बनाई और मैंने क्रमशः पहले, सोलहवें, बावीसवें, तेवीसवें, चौबीसवें, तीर्थङ्करों की एवं पहले, आठवें, एवं नववें
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