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सूत्रकृताङ्गसूत्रे
वीथ्यां नोपविशेन्नो बा, कुशलप्रश्नमाहरेत् ।। कृतां पूरी न वा क्रीडा, संस्मरेत् परिपन्थिनः ।।२।।
संयमस्येति संजानन्, एष शास्त्र विनिर्णयः ॥इति॥२१॥ मूलम्-जसं किति सिलोयं च, जाय वंदण प्रयणा ।
सम्वलोयंसि जे कामा, तं विज्जं परिजाणिया ॥२२॥ छाया-यशः कीश्चि श्लोकश्च, या च पन्दमपूजना।
सर्वलोके ये कामा, स्तद्विद्वान् परिजानीयात् ॥२२।। अन्वयार्थ:-(जस) यश:-ख्यातिः (शिति) कीति:-'अहो अयं पुण्यभागी. त्यादि सर्वदिव्यापि साधुवादः (च सिलोयं) च पुनः श्लोकः-गुणोत्कीर्तनम् से कुशल प्रश्न न पूछे। पूर्व जीवन में की हुई क्रीड़ा का स्मरण न करे, क्योंकि ऐसा करना संयम से विरुद्ध है। यह शास्त्रका निर्णय है ।।२।।॥२१॥ 'जसं किति सिलोयं च' इत्यादि।
शब्दार्थ--'जसं-यशः' ख्याति 'कित्ति-कीर्ति: कीर्ति-अर्थात् साधु बाद 'च सिलोयं-च श्लोक' श्लोक अर्थात् गुणवर्णन 'जाय वंदणपूयणाया च चंदनपूजना' और जो वंदन एवं वस्त्रादिप्रदानरूप सत्कार तथा 'सव्वलोयंसि जे कामा-सर्वलोके च ये कामा।' समस्तलोक में जो कामभोग है 'तं-तत्' उन सब को 'विज्ज-विद्वान्' विद्वान् मुनि 'परिजाणिया-परिजानीयात्' ज्ञपरिज्ञासे जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञासे उसका स्याग करे ॥२२॥
अन्वयार्थ-यश, कीर्ति, श्लोक, वन्दन, पूजन आदि समस्त लोक
મે કુશલ પ્રશ્ન પૂછવા નહીં પહેલાં કરેલ ક્રીડાનું સ્મરણ ન કરવું. કેમકે તેમ કરવું એ સંયમથી વિરુદ્ધ છે. આ પ્રમાણે શાસ્ત્રને નિર્ણય છે. ૧.રા.૨૧ 'जस कित्ति सिलोय च' त्याह
शपथ'--'जसं-यशः' यति 'कित्ति-कीतिः' प्रीति अथात् साधुवाई 'च. सिलोय'-च श्लोकः' as अर्थात् गुवन 'जा य वदणपूयणा-या ध वंदना प्रजना' तथा वहन अने. १६ महान ३५ स४२ तथा 'सबलोयासि जे कामा-सर्वलोके च ये कामाः' स भा २ मा छे, 'त-तत' से प्रधान विज्ज- विद्वान् विद्वान् भुनि परिजाणिया-परिजानीयात्' ज्ञपरिज्ञ.थी જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પરિણાથી તેનો ત્યાગ કરે છે૨રા ... -qया-यश, sld xx, 4-6न, पूजन विगैरे सपा सभा २
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