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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५४४ सूत्रकृताङ्गस् अन्वयार्थः - (जे) ये महापुरुः (बुद्ध) शुद्धं जिनेन्द्रपतिपादितत्वाभिमलम् अतएव (अलिस) अनीदृशम् अनन्यसदृशम् अनुपमम् पुनश्च (पडिपुन्नं) प्रतिपूर्ण मोक्षमार्गसाधक भावपरिपूर्ण सत् एतादृशं (धम्मं ) धर्म श्रुतचारित्रलक्षणम् (अति) आख्यान्ति भव्येभ्य उपदिशन्ति स्वयमाचरन्ति च तस्य तादृशस्य Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'जे धम्म सुमति' इत्यादि । शब्दार्थ -- 'जे - यः' जो महापुरुष 'सुद्ध-शुद्धम्' जिनेन्द्र प्रतिपादिन होनेसे निर्मल अत एव 'अलिम अनीदृशम्' अनुपम 'पडिपुन्न - प्रतिपूर्णम् प्रतिपूर्ण मोक्षमार्ग के साधक भाव परिपूर्ण होने से इस प्रकारका 'धम्मं धर्मम्' नचारित्र रूप धर्म को 'अति-आख्यान्ति' व्याख्यान द्वारा कथन करते हैं अर्थात् भवों को उपदेश करते हैं और स्वयं आचरणभी करते हैं 'अणेलिसरस- अनीदृशस्य' पूर्वोक्त धर्म का 'जं ठाणं - परस्थानम्' जो स्थान अर्थात् आधार भूत जो मुनि 'तरसतस्य' उनका 'जम्मकहा- जन्मकथा' जन्म की बात भी 'कभ - कुतः ' कहांसे हो सकती है ? अर्थात् जन्म धारण करने की बात तो दूर रही परंतु 'जन्म' ऐसा वचन भी नहीं कह सकते हैं ॥ १९ ॥ अन्वयार्थ - जो महापुरुष जिनेन्द्र प्रतिपादित होने के कारण निर्मल, अनएव अनुगम, प्रतिपूर्ण अर्थात् मोक्षमार्ग साधकता से परिपूर्ण, धर्म का भव्य जीवों को उपदेश देते हैं और स्वयं धर्मका आचरण करते - 'जे धम्मं सुद्धमति' त्यिाहि शार्थ - ' जे-य:' ने मात्र 'सुद्धं - शुद्धम्' भनेन्द्र प्रतिपाहित होवाथी निर्भय अतश्मे 'अणे लस - अनीदृशम्' अनुपम 'डिपुण्णं प्रतिपूर्णम्' संपूर्ण मे क्षभार्थना साध आव परिपूर्य होवाथी मा प्रहारना 'धम्मंधर्मम्' श्रुतयारित्र ३५ धर्म'ने 'अक्खति - आख्यान्ति' व्याध्यान द्वारा उथन કરે છે અર્થાત્ ભવ્યેાને ઉપદેશ કરે છે. અને પેતે આચરણ પણ કરે છે. 'अलिसा - अनीदृशस्य' पूर्वोस्त धर्मनुं 'जं ठाणं यत्स्थानम्' के स्थान अर्थात् आधार भूत ने भुनि 'तरस तस्य' तेनी 'जम्म कहा- जन्मकथा' भनी बात 'कओ - कुतः' यांथी यहां शड़े ! अर्थात् भन्म धारथ रवानी बात तो દૂર રહી પરંતુ ‘જન્મ' એવુ વચન પણુ કહી શકાતુ નથી. ૫૧૯ા અન્વયાય—જે મહ પુરૂષ જીનેન્દ્ર પ્રતિપાદિત હાવાના કારણે નિલ, અતએવ અનુપમ, પ્રતિપૂ અર્થાત્ મે ક્ષમાગના સાધક પણાથી પરિપૂર્ણ ધમના ભવ્ય જીવાને ઉપદેશ આપે છે, અને સ્વયં આચરણ કરે છે, જે For Private And Personal Use Only प्रम
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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