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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १५ आदानीयस्वरूपनिरूपणम् ४९ प्रतिपादयिता भवति इति अहन्नेवाऽतीताऽनागतवर्तमानवर्तिनोऽर्थस्य आख्याता वर्तते, अतः 'न तत्र तत्र'ति सुष्टूक्तम् , इति ॥२॥ मूलम्-तहिं तहिं सुयक्खायं से य सच्चे सुयाहिए।
सया सच्चेण संपन्ने मितिं भूएहिं कैप्पए ॥३॥ छाया-तत्र तत्र स्वाख्यातं तच्च सत्यं स्वाख्यातम् ।
सदा सत्येन संपन्नो मैत्री भूतेषु कल्पयेत् ॥३॥ महन्त ही अतीत अनागत और वर्तमान काल के पदार्थों के ज्ञाता हैं। इस प्रकार ठीक ही कहा गया है कि ऐसे धर्मप्रणेना अन्य दर्शनों में नहीं है ॥२॥
'तहि तहिं सुयक्खाय' इत्यादि।
शब्दार्थ-'तहिं तहि-तत्र तत्र श्री तीर्थङ्करदेव ने आगमादि स्थानों में 'सुयक्खायं-स्वारख्यातम्' सम्पक प्रकार से जीवादि पदार्थों का कथन किया है 'से य-तच्च' वह भगवत् कथन ही 'सच्चे-सत्य सकल जगज्जीवों के हितकारक होने से यथार्थ है और वही 'सुयाहिए. स्वाण्यातम्' सम्यक् प्रतिपादित होने से सुभाषित है अत: 'सच्चेणसत्येन' मुनि संयम से 'संपन्ने-संपन्नः' युक्त होकर 'भूएहि-भूतेषु' प्राणियों में 'मित्ति-मैत्रीम्' मैत्रीभाव 'कप्पए-कल्पयेत्' करे अपात् कहीं भी जीवविराधना की भावना न करें ॥३॥
અહંત ભગવાન જ અતીત, અનાગત, અને વર્તમાન કાળના પદાર્થોને જાણ નાશ છે. આ પ્રમાણે ઠીક જ કહ્યું છે કે-આવા ધર્મ પ્રણેતા અને દર્શક તેમાં નર્થી શા __ 'तहि तहि सुयक्वाय त्याल
Awari -'तहि तहि-तत्र तत्र' श्री तीय"४२ माम विरे स्थानमा 'सुयक्खाय-स्वाख्यातम्' सारी रात पाहि पहायान इयन ४ है 'से य-तच्च' में भगवत् ४यन 'सच्चे-सत्य' समस्त ornoid ति४२ हवाथी यथाथ छे. अने मे 'सुयाहिए-स्वाख्यातम्' सम्म प्रति. पाहन ४२० पाथी सुभाषित छ. तेथी 'सच्चेण-सत्येन' मुनि सयमयी संपन्ने-संपन्नः' युत मनाने 'भूएहि-भूतेषु' प्रालियामा 'मित्ति-मैत्रीम्' भैत्रीला 'कप्पए-कल्पयेत्' अरे अर्थात् ध्याय ५ वानी विराधनानी छान ४२ ॥३॥
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