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मूलम् - हासं पिणो संधइ पावधम्मे,
जो तुच्छए णोय त्रिकत्थइज्जा,
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ओए तेही फेरुसं वियोणे ।
सूत्रकृताङ्गसूत्रे
अणाइले या असाइ भिक्खू ॥ २१ ॥
छाया -हासमपि न सन्धयेत् पापधर्मान्, ओजस्तथ्यं परुषं विजानीयात् । न तुच्छो न च विकत्थयेत्, अनाविलो वाऽकषायी भिक्षुः ॥२१॥
'हासपि णो संघह पावधम्मे' इत्यादि ।
शब्दार्थ - भिक्खू - भिक्षुः निरवद्य भिक्षा का सेवन करनेवाला साधु 'हा संप - हास्यम पि' परिहास भी 'णो संघए-नो सन्धयेत्' न करे तथा 'पावनम्मे पापधर्मान्' कायिक वाचिक, मानसिक व्यापारों को न करे तथा 'ओए ओजः' रागद्वेष रहित होकर 'तहियं तथ्यम्' सत्य वचन भी 'फरुस - कठोरम्' अन्य को पीडा करनेवाला है ऐसा 'विद्याणे-विजानीयात्' जाने तथा 'जो तुच्छए-न तुच्छो' स्वयं किसी अर्थको जानकर अथवा राजादिसे पूजा सत्कार आदि प्राप्त करके मदन करे 'नो य विकत्थइज्जा न च विकत्थयेत्' आत्मश्लाघा न करे तथा 'अणाइले - अनाविल: ' धर्मकथा आदि के अवसर आकुलता न रखे तथा 'अकसाई - अकषायी' क्रोधादि कषायों से रहित होवे अर्थात् क्रोधादि को अपने में प्रवेश न करने दें || २१ ||
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हापि णो संघइ पाववम्मे' इत्यादि
निरवद्य लिक्षानु सेवन
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शब्दार्थ' – 'भिक्खू - भिक्षुः' उरवावाणी साधु 'हासं पि- हास्यमपि' परिहास पशु 'णो संघए-नो सन्धयेत' न रे तथा 'पावधम्मेपापधर्मान् पापो थि वाहि मानसिह थे ये अहारथी त्याग रे तथा 'ओए - ओजः' रागद्वेष रहित मनीने 'तहिय' - तथ्यम्' सत्य वयन प 'फरुसं - कठोरम्' अन्यने पीडा उरवावाणु छे मेवु' 'वियाणे - विजानीयात्' भो तथा 'णा तुच्छ न तुच्छो' पोते अर्थ पशु अर्थने लखीने अथवा राल विशेरैथी पूल सत्कार विगेरे पाभीने भट्ट न रे 'नो य विकत्थइज्जा - नच विकत्थ येत्' मात्मश्लाघा पोताना वायु न रे तथा 'अणाइले- अनाविल: ' धर्म' उथा विगेरेना अवसरे आणता न रा तथा વિગેરેને પાતાનામાં પ્રવેશ ન કરવા દે ર૧મા
'अकसाई - अकषायी' शेष