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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३८ सूत्रकृताचे ___ अन्वयार्थ:- (अस्सि) अस्मिन् गुरुकुले निवसन् शिष्यः (मुठिच्चा) सुस्थायसमाधिरूपे मुक्तिमार्गे सम्यक् स्थित्वा (तिविहेण) त्रिविधेन-त्रिकरणत्रियोगेन (तायी) वायी-सकलजीवत्राणकारको भवति (एएसु या) एतेषु च-समितिगुप्त्यादिषु विचरतः-संयतस्य (संति) शान्तिम्-समस्तक्लेशक्षयरूपाम् (निरोह) सुस्थाय' समाधि रूप मुक्ति मार्गमें सुचारु रूपसे निवास करनेवाला साधु 'तिविहेग-त्रिविधेन' त्रिकरण तीन योगसे 'तायी-त्रायो' समस्त जीवों का रक्षण करने वाला होता है 'एएस-एतेषु' ये समिति और गुप्तिके पालन करनेवाले संयतको 'या संनि-या शान्तिः सकल क्लेशक्षयरूप जो शान्ति है तथा 'निरोह-निरोधम्' अशेष कर्मक्षय रूप निरोध-कर्मका क्षय होना 'आहु-आहुः सर्वज्ञों ने कहा है वे कौन थे ? ऐसी जिज्ञासा में कहते हैं-'तिलोगदंसी-त्रिलोकदर्शिनः' तिनों लोकके ज्ञाता 'ते-ते' वे तीर्थंकरादि 'एवमक्खंति-एवमाचक्षते' इस प्रकारसे कहते हैं की भुज्ज य-भूपश्च' फिरसे 'पमायसंगं-प्रमादसङ्गम्' मदक पायादि संसर्ग को 'ण एयंतु-न यन्तु' प्राप्त न होवे ॥१६॥ ___ अन्वयार्थ-गुरुकुल में निवास करनेवाला शिष्य समाधि रूप सम्पर ज्ञान चारित्रात्मक मुक्तिमार्ग में सम्यक स्थित होकर त्रिकरण त्रियोग से सकल जीवों का त्राण कारक (रक्षक) होता है। मोक्षतत्त्व को जानने वाले विद्वान् सर्वज्ञ भगवान् तीर्थकर समिति गुप्ति आदि में समाधि ३५नु मुतिमामा सुया३ ५४।२थी निपा ४२वापाको साधु 'तिवि हेण-त्रिविधेन' त्रि वियोगधी 'सायी-त्रायी' या वानु २क्षण ४२१॥ વાળે હેય છે. “gug-” આ સમિતિ અને ગુપ્તિનું પાલન કરવાવાળા सयतने 'या संति-या शान्तिः स वेश क्षय ३५२ शान्ति छ तथा 'निरोह निराधम्' अशेष भक्षय ३५ निरी५ अर्थात् मना क्षय थवानु 'आहुआहुः' सबा धु छ. ते सर्प आता ? से शास॥ भाटे से छ है-'तिलोगदंसी-त्रिलोक हि नः' त्रणेने पापा 'ते-ते' मे तिथ. शह 'एवमक्खं त-एवमाचक्षते' से रीते ४ छे ?-'भूज य-भूयश्च' शथी 'मायसंग-प्रमादमगम्' महषाय विगैरे सगन 'ण एयंतु न यन्तु' प्रात ન થાય ૧૬ અવયાર્થ–ગુરૂકુળમાં નિવાસ કશ્વાવાળે શિષ્ય સમાધિ રૂ૫ સમ્યફ જ્ઞાન ચારિત્રાત્મક મુક્તિમાર્ગમાં સુસ્થિત થઈને ત્રણ કરણ અને ત્રણ વેગથી સકલ ના ત્રાણુ કારક (રક્ષક) થાય છે. મોક્ષ તત્ત્વને જાણવાવાળા વિદ્વાન સર્વજ્ઞ ભગવાન તીર્થકર સમિતિ ગુપ્તિ વિગેરેમાં વિચરવાવાળા સંયમી સાધુને For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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