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समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. १३ याथातथ्य स्वरूपनिरूपणम्
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भिक्षु अनुकूल रूप शब्द आदि की प्राप्ति होने पर भी रागद्वेष से रहित होने के कारण दृष्ट विषय को अदृष्ट और श्रुत को अश्रुत करता हुआ एषणा अनेषणा के ज्ञान में पड होने पर भी ग्रामादि में भिक्षार्थ पर्यटन करता हुआ अन्तवान्त आहार करने के कारण तथा शरीर का संस्कार न करने के कारण तृप्त सदृश देह का अनुभव करके संयम में अरति को प्राप्त हो जाय तो उस समय क्या करे ? यह दिखलाते हैं - ' अरई रहे व अभिभूय इत्यादि ।
शब्दार्थ - 'भिक्खू - भिक्षुः ' निरवद्य भिक्षा को ग्रहण करने वाला साधु 'बहूजणे बा-बहुजनो वा' अनेक पुरुषों के साथ निवासकरता हो 'तह - तथा' और 'एमचारी - एकचारी' एकेला भी हो तो भी 'अरई-अरतिम्' संयम में अरुचि एवं 'रई च-रतिश्च' असंयम में रुचि को 'अभिभूय-अभिभूय' दूरकर के 'एगस्स एकस्य' अकेला ही 'जंतो-जन्तो!" जीव की 'गई - गतिम् ' भवान्तर गमनरूप गति को तथा 'आग' चआगतिश्च' भवान्तर से आगमन रूप आगति को 'एगतमोणेण - एकान्तमौनेन' सर्वथा शुद्ध संगम को आश्रय करके 'विघागरेज्जा - व्या गृणीयात् धर्मकथाका उपदेश करे || १८ ||
ભિક્ષુ અનુકુળ રૂપ, શબ્દ, વિગેરેની પ્રાપ્તિ થવા છતાં પણ રાગદ્વેષથી રહિત હાવાના કારણે દૃષ્ટ થયેલા વિષાને અષ્ટ શ્રુતને અશ્રુતની જેમ કરતા થકા એષણા અને અનેષણાના જ્ઞાનમાં ચતુર હાવા છતાં પણ ગામ વિગેરેમાં માહારને માટે પર્યટન કરતા થકા અન્ત પ્રાન્ત આહાર કરવાના કારણે તથા શરીરના 'સ્કારેા ન કરવાથી મરેલાની જેમ શરીરને અનુભવ કરીને સયમમાં અતિ-અરૂચિ ભાવ પ્રાપ્ત થઈ જાય તા તેવા સમયે શુ કરવું ? તે બતાવવા માટે નીચે પ્રમાણેની ગાથા કહે છે. अरई रइंच अभिभूय' इत्याहि
शब्दार्थ' – 'भिक्खू - भिक्षुः' निखद्य लिक्षाने अडलु श्वावाणी साधु 'बहूजणे वा - बहुजनो वा' भने पुरषोनी साथै निवास करता होय 'तह - तथा ' अगर ‘एगचारी एकचारी' होय तो पशु 'अरई -अरतिम्' सत्यभभां ३थि भने रइंच रतिश्च' असंयम ३थिने 'आभिभूय - अभिभूय' हर उरीने एगस्स - एकस्य' अन 'जंतो- जन्तो:' लवनी गई - गतिम्' अवान्तर जमन ३५ गतिने तथा ‘आगइ’च - अगतिञ्च' भवान्तरथी भाषा ३५ अगतिने 'एग तमोणेण - एकान्तमौनेन' सर्वथा शुद्ध सत्यमना आश्रय हरीने 'बियागरेज्जाव्यागुणीयात् धर्मस्थानो उपदेश हरे ||१८||
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