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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासूचे . अन्वयार्थ-(ते)ते-पूर्वोक्ताः प्रत्यक्षज्ञानिनः (दुगुंछमाणा) जुगुप्समानाः पापं कर्म निन्दन्तः सन्तः (भूयाहिसंकाइ) भूताभिशङ्कया-प्राण्युपमर्दनशङ्कया (णेव) नैव (कुव्वंति) कुर्वन्ति-न स्वयं पापकर्म समाचरन्ति तथा-(ण कारवंति) न पापाचरणे परं प्रेरयन्ति, उपलक्षणात् पापं कुर्वन्तमन्यं नानुमोदयन्ति च, किन्तु ते (धीरा) धीरा:-परीपहोपसर्गसहनशीलाः (सया) सदा-निरन्तरमहनिशम् (जया) शब्दार्थ-'ते-ते' वे पूर्वोक्त प्रत्यक्ष ज्ञानी अर्थात् तीर्थकरादि 'दुगुं. छमाणा-जुगुप्समाना' पापकर्म से घृणा करते हुए 'भूताहिसंकाइभूताभिशङ्कया' प्राणियों के घातके भय से 'नेव कुति-नैव कुर्वन्ति' स्वयं पाप नहीं करते हैं तथा 'ण कारवंति-नकारयन्ति' पापाचरण करने के लिए अन्य को प्रेरित नहीं करते हैं 'धीरा-धीराः' परीषह एवं उप. सर्ग को सहन करनेवाले वे पुरुष 'सया-सदा' सर्व काल 'जया यता' पतना युक्त होकर 'विप्पणमंति-विप्रणमन्ति' संयम का अनुष्ठान करते हैं 'य-च' तथा 'एगे-एके' कोइ अल्पसत्व 'विण्णत्ति धीरा-विज्ञ. प्तिधीराः' संयम के ज्ञान मात्र से संतुष्ठ 'हवंति-भवन्ति' होते हैं अर्थात् क्रियासे संयमका अनुष्ठान नहीं करते हैं ॥१७॥ अन्वयार्थ-वे पूर्वोक्त प्रत्यक्षज्ञानी पापकर्म की जुगुप्सा करते हुए, प्राणियों के उपमर्दन (विराधना) की संभावना से न स्वयं पापकर्म करते हैं न करवाते हैं और न पापकर्म करनेवाले का अनुमोदन करते हैं । वे शहा–'ते-ते' मे पडे। १ प्रत्यक्ष शानी अर्थात ताय - हि 'दुगुछमाणा-जुगुप्समानाः' ५५ ४भनी या ४२ता था। 'भूताहिसंकाइ -भूताभिशङ्कया' प्रालियाना घातना यथा 'नेव कुव्वति -नैव कुर्वन्ति' पाते ५५४ ३२ता नथी. तथा 'न कारवति-न कारयन्ति' ५।५नु मायरय ४२१॥ भाट भी । ४२ता नथी. 'धीरा-धीराः' परीष मन. ६५सान सहन ४२॥१॥ मेवा ते ५३५। 'मया-सदा' सण 'जया-यताः' यतनाणा मनी 'विपणमंति-विप्रणमन्ति' सयभनु मनुहान ४३ छे. 'य-च' अने 'एगे-एके' ४ ५ सत्व 'विण्णत्तिधीरा-विज्ञप्तिधीराः' सयमना ज्ञान भात्री संतोषी 'हव'ति-भवन्ति' थाय छे. अर्थात् यापू'सयभनु અનુષ્ઠાન કરતા નથી. ૧૭ અન્નયાર્થ–પૂર્વોક્ત પ્રત્યક્ષ જ્ઞાની પાપકર્મની નિંદા કરતા થકા પ્રાણિીના ઉપમન (વિરાધના) ની સંભાવનાથી પિતે પાપ કર્મ કરતા નથી તેમજ બીજા પાસે પાપકર્મ કરાવતા નથી તથા પાપ કર્મ કરવાવાળાની અનુ For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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