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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. १२ समवसरणस्वरूपनिरूपणम् २८७ अन्वयार्थः - (जे) ये केचित् (रक्खसा ) राक्षसाः - राक्षसात्मनो व्यन्तराः ( जमलोइया) यमलौकिकाः - अम्वादयः परमधार्मिकाः (वा) वा अथवा (जे) येकेचन (सूरा) सुराः - देवाः सौधर्मादिवैमानिकदेवार, उपलक्षाणावू असुरा बा - असुरकुमारादि भवनवासिनः (य) च - चशब्दाद् ज्योतिष्कदेवाश्च (गंधन्वा गन्धर्वाः हे 'वा-वा' अथवा 'जे थे' जो कोई 'सुरासुराः' सौधर्मादि वैमानिक देव उपलक्षणसे असुरकुमारादि भवनपति 'य-च' और 'गंधण्यागंध' गंधर्व तथा 'काया - कायाः' पृथिवीकायादि छ जीवनीकाय 'य-च' और 'आगासगामी - आकाशगामिनः' पक्षीगण अथवा जिनको आकाश गमन की लब्धी प्राप्त हुई है ऐसे विद्याचारण जङ्घाचारण आदि तथा 'जे-ये' जो कोई 'पुढो सिया-पृथ्व्याश्रिताः' पृथ्वीके आश्र यसे रहनेवाले पृथिव्यादि एकेन्द्रियादि पंचेद्रिय तक के सभी प्राणी है वे सब अपने आप किये कर्म से 'पुणो पुणो- पुनः पुनः' बार बार 'विप्परि या - विपर्यासम' घटीयन्त्र के जैसे परिभ्रमण को 'उवेति-उपयन्ति' प्राप्त होते हैं अर्थात् संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं ॥ १३ ॥ अन्वयार्थ - जो राक्षस अर्थात् एक प्रकार के व्यन्तर हैं, जो अम्ब आदि परमधार्मिक है, या जो सौधर्म देवलोक आदि में रहने वाले वैमानिक देव हैं, उपलक्षण से असुरकुमार आदि भवनवासी हैं, 'च' छे 'वावा' अथवा 'जे-ये' ने अर्ध 'सुरा - सुराः ' सौधर्भादि वैभानि देव उपलक्षयुथी असुरकुमाराहि लवनपति 'य-च' भने 'गंधव्वा - गंधर्वाः' 'धर्व तथा काया-कायाः' पृथ्वी अयाहि छ अारना भवनीय 'य-च' भने 'आगागामी - आकाशगामिनः' पक्षि समूह अथवा भेगाने आशमां भवानी सम्धी પ્રાપ્ત થઈ છે એવા વિદ્યાચારણુ જ ઘાચારણ વિગેરે તથા નૈ-ચે” જે કાઈ 'पुढोसिया - पृथिव्याश्रिताः' पृथ्वीना आश्रयथी रहेवावाजा पृथिव्याहि येडेन्द्रियथी પંચેન્દ્રિય સુધીના બધા પ્રાણિયો છે, તેઓ બધા પોતે પોતાની મેળેજ કરેલા ४थी 'पुणो पुणो- पुनः पुनः' वारंवार 'विप्परियास - विपर्यासम्' २२थडेनी भाइ परिभ्रभथुने 'उवे 'ति - उपयन्ति' प्राप्त थाय छे, अर्थात् ससा - રમાં પરિભ્રમણ કરતા રહે છે એટલે કે સ'સારમાં જ ભટકવા કરે છે. ૧૩શા અન્વયા—જો કાઈ રાક્ષસ અર્થાત્ એક પ્રકારના વ્યંતર જે અમ્બ વિગેરે પરમાધાર્મિક છે, અથવા જે સૌધમ આદિ દેવલેાકમાં રહેવાવાળા વૈમાનિક દેવ છે, ઉપલક્ષણથી અસુરકુમાર વિગેરે ભવનવાસી છે, 'च' शब्दथी ज्योतिष्ठ है, तथा गंधर्व भने विद्याधर थे, तथा नि For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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