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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १२ समवसरणस्वरूपनिरूपणम् ૨૯ अन्वयार्थः - (ते) ते 'समणा' श्रमणाः - शाक्यादयः (य) च तथा ( माहगा ) माहना:- परतीर्थिका ब्राह्मणा वा क्रियावादिनः ( एवं ) एवम् इत्थम् (अक्खति ) आख्यान्ति - कथयन्ति यत् (लोग) लोकम् - स्थावरजङ्गमात्मकम् (समिच्च) समे त्य-स्वस्व कुकर्म भोक्तृत्वेन ज्ञात्वा ( तहा तहा) तथा तथा यथायथा क्रिया क्रियते तथा तथा तेन तेन प्रकारेण स्वर्गनरकादिरूपं फलं भवतीति कथयन्ति, स्थावर जंगमात्मक लोकको 'समिच्च समेत्य' अपने अभिप्रायानुसार जानकर 'तहा तहा - तथा तथा' जिस जिस प्रकार क्रिया की जाती है उस उस प्रकार स्वर्ग नरकादिरूप फल होता है ऐसा कहते हैं और जो कुछ दुःख अथवा सुख होता है वह सब जीव 'सयंकडे - -स्वयम् कृतम्' अपने आप किया हुआ 'दुक्खं दुःखम् ' दुःख अथवा सुख का अनुभव कहते हैं 'णनकर्ड - नान्यक्रमम्' अन्य के द्वारा अर्थात ईश्वर अथवा कालादिकृत नहीं है उनका यह कथन युक्ति युक्त नहीं है कारण कि तीर्थंकर गणधर आदि 'विज्जाचरणं-विद्याचरणम्' विद्या- ज्ञान चरण माने चारित्र जिनका कारण है ऐसा 'पमोक्खं प्रमो क्षम्' 'आहंस-आहुः' कहते हैं अर्थात् मोक्ष, ज्ञान और क्रिया दोनों से साध्य होता है ऐसा तीर्थकरादिकहते हैं ॥ ११ ॥ P Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्वयार्थ- कोई कोई श्रमण और ब्राह्मण स्थावर जंगम रूप जगत् को अपने कर्मों का फल भोगते जानकर कहते हैं कि क्रिया के अनुबाउने 'समिच्च समेत्य' पोताना अभिप्राय प्रमाणे गाने 'तहा वहा - तथा તથા જેજે રીતે ક્રિયા કરવામાં આવે છે, એ એ પ્રકારથી સ્વર્ગ નરક વિગેર પ્રકારથી ફળ પ્રાપ્ત થાય છે તેમ કહે છે, અને જે કઇ દુઃખ અથવા સુખ भजे छे, ते मधु' व 'स्वयं कडं - स्वयं कृतम्' पोते पोतानी भेणे पुरेसा 'दुःख' - दुखम् ' दु:ध्म अथवा सुमनो अनुभव उरे छे. 'जन्नकडं - नान्यकृतम्' અન્યના દ્વારા અર્થાત્ ઈશ્વર અથવા કાળ વિગેરેથી કરવામાં આવેલ નથી. તેનું આ કથન યુક્તિ સંગત નથી. કારણ કે તીર્થંકર ગણધર विगेरे 'विज्जाचरणं - विद्याचरणम्' विद्या-ज्ञान यर अर्थात् शास्त्रि हेतु ४२ छे मेवा 'पमोक्ख' - प्रमोक्षम् ' भोक्षने 'आह'सु-आहु:' हे छे. अर्थात् માક્ષ, જ્ઞાન અને ક્રિયા એ બન્ને દ્વારા સાધ્ય કરી શકાય છે. એ પ્રમાણે तीर्थ हिडे छे. ॥११॥ અન્વયાય—કાઈ કાઇ શ્રમણુ અને બ્રાહ્મણ સ્થાવર જંગમ રૂપ જગતને પાતાના કર્મોના ફળને ભાગવનાર સમજીને કહે છે કે-ક્રિયા પ્રમાણે જ ફળ सु० ३६ For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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