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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ११ मोक्षस्वरूपनिरूपणम् ध्यानं ध्यायन्ति (अखेयन्ना) अखेदज्ञाः-परदुःखमजानानाः (अमराहिया) अस. माहिताः-मोक्षमार्गाद् दूरे वर्तन्ते इति ॥२६॥ ____टीका--'ते य' ते च-पूर्वोक्ता वादिनो बौद्धादय:-जीवाऽजीवपदार्थस्वरूपान् परमार्थत:- अजानानाः (बीओदगं चेव) बीजोदकमेव-बीजानि-शालि. गोमधूमादीनि, उदकानि च-सचित्तजलानि अत्रैव शब्दोऽप्यर्थकः, तथा च 'तमुधिस्साय' तानुदिश्य तदनुयायिभिहस्थैः 'ज कडं' यकृतम्, आहारपानादिकम्, तत्सर्वमन्नं शीत नलादिकं च, तदपि भोच्चा' मुक्त्वा तदनन्तरम्-सातऋद्धयादि गौरवासक्ताः पुनस्तदवाप्त्यर्थम् 'झाणं' ध्यानम्-आर्तम् 'झिपायंति' ध्यायन्ति, आधार्मिकं सावधमाहारमभ्यवहृत्य, पुनः सातऋद्धिरसगौरवपाप्त्यर्थ ध्यानम्-प्रातरौद्रादिकं ध्यायति, न हि तयानमैहिकसुखैषिणां दासीदासधनधान्यादिपरिग्रहवतां तेषां धर्मध्यानं भवति तदुक्तम्
'ग्रामक्षेत्रगृहादीनां, गवां प्रेष्य जनस्य च ।
यस्मिन् परिग्रहो दृष्टो ध्यानं तत्र कुतः शुभम् ॥१॥ ध्याते हैं। परकीय पीड़ा को न जानने वाले वे मोक्षमार्ग से दूर रहते हैं ॥२६॥
टीकार्थ--जीव अजीव आदि तत्वों को पारमार्थिक रूपसे नहीं जानते हुए पूर्वोक्त बौद्ध तथा दण्डी आदि वादी सचित्त बीजों का, सचित्त जल का तथा भक्तों द्वारा उन्हीं के उद्देश्य से बनाये गये आहार आदि का उपभोग करते हैं और उसकी प्राप्ति के लिए आर्तध्यान करते हैं अथवा उद्दिष्ट आहार आदि का सेवन करके मान प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए आर्त रौद्र आदि ध्यान ध्याते हैं । वस्तुतः उन धनार्थियों का वह ध्यान धर्मध्यान नहीं होता है। कहा भी है-ग्रामक्षेत्र गृहादीनां' इत्यादि।
जिसमें ग्राम, क्षेत्र, गृह, गौ, भृत्यजन आदि का परिग्रह देखा जाता है, वहां शुभ ध्यान कैसे हो सकती हैं ॥१॥
ટીકાથે--જીવ, અજીવ વિગેરે તને પરમાર્થિક પણાથી ન જાણતા એવા પૂર્વોક્ત બોદ્ધો તથા દંડી વિગેરે વાદવાળા સચિત્ત બીજેને, સચિત્ત પણીને, તથા ભક્તોએ તેમને ઉદેશીને બનાવવામાં આવેલ આહાર વિગેરેને ઉપભેગ કરે છે. અને તેની પ્રાપ્તિ માટે- આર્તધ્યાન અને રૌદ્ર વિગેરે ધ્યાન ધરે છે. ખરી રીતે તે ધનની કામના વાળાઓનું તે ધ્યાન ધર્મધ્યાન હતું नथी. यु ५५ छ है-'ग्रामक्षेत्रग्रहादीनां' त्याहि मां शाम, क्षेत्र, १२, ગા, સેવક વર્ગ વિગેરેને પરિગ્રહ જોવામાં આવે છે. ત્યાં શભળ્યાન हैवारीत यश ? ॥१॥
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