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भव संचित सवि दुष्कृत दुर पलाय जो; सूरजकुंडे नाहि निर्मल थाईये. जिनवर सेवी आतम पावन थाय जो. विमला० ५ जात्रा नवाणुं करीये तन मन लग्नथी, धरीये शील समता वली व्रत पच्चक्खाण जो; गणीए गणणुं दान सुपात्रे दीजीए, द्वेष तजी धरो शत्रु मित्र समान जो. विमला०६ ए गिरि भेटे भव त्रीजे शीवसुख लहे, पांचमे भव तो भवियण मुक्ति वराय जो; सूरि धनेश्वर शुभ ध्याने ईम भाखीये, पापी अभवीने गिरि नवि फरसाय जो. विमला० ७
२८. गिरिवर दरशन विरला पावे... गिरिवर दरिशण विरला पावे, पूरव संचित कर्म खपावे;
गि०१ ऋषभ जिनेश्वर पूजा रचावे, नव नव नामे गिरिगुण गावे; सहस्रकमल ने मुक्ति निलय गिरि सिद्धाचल शतकूट कहावे;
गि०२ ढंक कदम्बने कोडी निवासो, लोहित तालध्वज गुण गावे,
गि०३ ढंकादिक पंच ढूंक सजीवन, सुरनर मुनि मली नाम धरावे.
गि०४
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