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"सिद्धात्मा का आकार पूर्वशरीर प्रमाण सांगोपांग बना रहता है 'किंचित' ऊनका अर्थ यह है कि जहाँ २ आत्मा के प्रदेश नहीं थे इतना आकार कम होजाता है, जैसे नख केश व रोओं का व त्वचा पर की महीन झिल्ली का"
(पृ. ८०) जैन-दिगम्बर विद्वान भी सिद्ध भगवान् का आकार मुक्त शरीर से २/३ प्रमाण में ही मानते हैं। देखिये प्रमाण
(१) पं० लालारामजी सिद्धभक्ति में लिखते हैं "उसका परिमाण अन्तिम शरीर से कुछ कम रहता है । क्योंकि-शरीर के जिन २ भागों में आत्मा के प्रदेश नहीं हैं उतना परिमाण घट जाता है शरीर के भीतर पेट नाक कान आदि भाग ऐसे हैं जिनमें (पोले भागमें) आत्माके प्रदेश नहीं है । इसलिये आचार्य कहते हैं कि अन्य ऐसे कारण हैं जिनसे यह सिद्ध हो जाता है कि मुक्त जीव का परिमाण अन्तिम शरीर के परिमाण से कुछ कम है। यह कमी आकार की अपेक्षा से नहीं है किन्तु घनफल की अपेक्षा से है" ॥
(दशभक्त्यादि संग्रह पृ. ४४) (२) वे ही अन्यत्र बताते हैं कि
"यह दो भाग का रह जाना घनफलकी अपेक्षा है । अन्तिम शरीर का जो घनफल हैं उससे सिद्ध अवस्था घनफल एक भाग कम है, क्योंकि पेट आंटी शरीर के भीतर का पोला भाग भी उस धन फल में से निकल जाता है"।
(चर्चासागरसमीक्षा पृ. ७८) (३) चम्पालाल पांडे लिखते हैं कि
"जिस शरीर से केवली भगवान् मुक्त होते हैं उसका तीसरा भाग कम हो जाता है। दो भाग प्रमाण सिद्धों की अवगाहना रहती है। जैसे तीन धनुष के शरीर वाले मनुष्य की अवगाहना सिद्ध अवस्था में जाकर दो धनुषकी अवगाहना के समान रह जाती है। जो जीव केवल नख केश रहित सिद्धों की अवगाहना मानते हैं वह भ्रम है"।
(च० पृ. ४५)
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