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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५ (६) सयोगी केवली को वचन योग है, अतः औपचारिक मनोयोग भी है। वे मनोवर्गणा के स्कंध लेते हैं । ( गोम्मटसार, जीवकांड, गा० २२७, २२८, ६६३, ६६४) केवलीओको द्रव्यमन हैं, मगर जो वस्तु है वह तो है ही, असत् नहीं है, फिर भी उसे औपचारिक मानना, यह शब्दव्यवहार मात्र ही है वस्तुतः केवलीको द्रव्यमन है । (७) छप्पिय पत्तीओ, बोधव्वा होंति सण्णिकायाणं || ६ || टीका- आहारशरीरेन्द्रियानप्राणभाषामनःपर्याप्तयः बोधव्वा बोधव्याः सम्यगवगन्तव्याः होंति भवन्ति सष्णिकायाणं संज्ञिकायिकानां, ये संज्ञिनः पंचेन्द्रियास्तेषां पडपि पर्याप्तयो भवन्ति इत्यवगन्तव्यम् ॥६॥ ( दि० भा० हेरकस्वामीकृत मूलाचार परि० १२ पर्याप्तधिकार ) (८) समनस्काम स्का: । मनो द्विविधं द्रव्यमनो भावमनश्चेति । तत्र पुगलविपाकि कर्मोदयापेक्षं द्रव्यमनः । वीर्यान्तरायनोइन्द्रियावरणक्षयोपशमापेक्षया आत्मनो विशुद्धिर्भावमनः तेन मनसा सह वर्तन्ते इति समनस्का । न विद्यते मनो येषां ते इमे अमनस्काः । एवं मनसो भावाभावाभ्यां संसारिणो द्विधा विभज्यन्ते । (तत्वा० अ० २ सू० ११) (सर्वार्थ सिद्धि पृ० ९९ ) माने- संसारी जीव दो प्रकार के हैं, मनवाले वे समनस्क और मन से रहित वे अमनस्क हैं, तीर्थकर अमनस्क नहीं हैं, समनस्क हैं- मनवाले हैं। भावमन स्तावत् लब्धि उपयोग लक्षणं, पुद्गलावलंबनात् पौनलिकं । द्रव्यमनश्च पौगलिकम् । ( सर्वार्थसिद्धि अ० ५० १९० १८३ ) (९) एकेन्द्रियास्तेपि यदष्टपत्रपत्राकारं द्रव्यमनस्तदाऽऽधारेण भावमनश्चेति, तदुभयाभावावू शिक्षाला पोपदेशादिग्राहकं संज्ञिन एव । For Private And Personal Use Only
SR No.020729
Book TitleShvetambar Digamber Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand Shah
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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