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इनमें से एक भी दूषण केवली भगवान में नहीं होता है।
जैन-केवली भगवान के भूख, प्यास, स्वेद, रोग आदि होने का प्रमाण दिगम्बर शास्त्रोंमें भी उपलब्ध हैं। जैसा कि
केवली भगवान को शाता, अशाता, उदयमें रहते हैं अतः भूख आदि की मना नहीं हो सकती है, उनको ११ परिषह होती हैं, जिनमें भूख प्यास वध रोग और मल भी सामिल हैं। मल परिषह है तो निहार है, स्वेद भी है। सिर्फ तीर्थकरों को अतिशय के जरिये जन्मसे ही स्वेद की मना है। घातिकर्मज अतिशयों में निःस्वेदता का सूचन नहीं है इस दिगम्बरीय पाठ से केवली भगवान को स्वेद सिद्ध हो जाता है। अशाता का उदय है, रोग परिषह है, तो रोग भी होता है।
पांचों इन्द्रिय तीनों बल श्वासोश्वास व मनुष्यआयु ये १० प्राण उदय में हैं वहां तक "जीवन" रहता है (बोध प्राभृत ३५, ३८) और उन १० प्राणों के छूटने पर प्राण विच्छेदरूप "मृत्यु" भी होता है । वधपरिषह भी इस मान्यता की ताईद करता है।
वेदनीय कर्मके बंध उदय और सत्ता होनेसे पुण्य पाप भी हैं, अस्थिर, अशुभ, दुस्वर वगैरह पाप प्रकृति हैं। स्थिर जिन नामकर्म वगैरह पुण्य प्रकृतियाँ हैं।
ये सब बातें दिगम्बर शास्त्रों से सिद्ध हैं।
इसके अलावा दिगम्बर शास्त्रमे १४ ग्रन्थी माने गये हैं उनका विवेक करने से भी केवली के १८ दूषण कोन २ हैं, वह स्वयं समजमें आ जाता है। देखिए
क्षेत्रं वास्तु धन धान्यं, द्विपदं च चतुष्पदं । हिरण्यं च सुवर्ण च, कुप्यं भाण्डं बहिर्दश ॥१॥ मिथ्यात्ववेदौ हास्यादि-षट् कषायचतुष्टयं । रागद्वेषौ च संगाः स्यु-रन्तरंगाश्चतुर्दश ॥२॥
(दर्शनप्राभृत गा० १४ टीका, भावप्रामृत गा० ५६ टीका) मिथ्यात्व, तीनों वेद, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जु. गुप्सा, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वेष ये १४ अभ्यंतर ग्रंथ हैं। क्षपकश्रेणीमें इनका अभाव हो जाता है, अथवा यों कहा जाय तो भी ठीक है कि-पांच निर्ग्रन्थों में निर्दिष्ट चतुर्थ
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