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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शानावरणी ते दोइ प्रशा अज्ञान होइ एक महामोह ते अद. शन बखानिये। अन्तराय कर्म सेती उपजै अलाभ दुःख सप्त चारित्र मोहनी केवल जानिये ।। नगन निषद्या नारि मान सन्मान गारि यांचना अरति सब ग्यारह ठीक ठानिये। एकादश बाकी रहीं वेदना उदयसे कहीं बाईस परीषह उदय ऐसे उर आनिये ॥२५॥ अडिल्ल-एक बार इन माहिं एक मुंनिकै कही। सब उन्नीस उत्कृष्ट उदय आवे सही ॥ आसन शयन विहाय दाय इन माहिकी। शीत उष्णमें एक तीन य नाहिं की ॥२६॥ (बाईस परिषह ३६, जैन सिद्धांत संग्रह पृ० १७२) जैन–४ कर्म, ४२ प्रकृति और ११ परिषह ये केवली भगवान के वर्तन के विषय में अच्छा प्रकाश डालते हैं। इनसे मानना होगा कि केवली भगवान चलते हैं, बोलते हैं, खाते हैं, पीते हैं, मल छोड़ते हैं, रोगी होते हैं और वध परिषह को पाते हैं वगैरह ।। यह भी निर्विवाद होता है कि केवलि भगवान में अज्ञान, क्रोध, मद, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, निन्द्रा, हिंसा, झूठ, चोरी, प्रेम, क्रीडा और ईर्षा ये १८ दूषण नहीं रहते हैं। (आ० नेमिचन्द्रसूरिकृत प्रवचनसारोद्धार गा० ४५१-४५२) दिगम्बर-केवली भगवान् खोते पीते नहीं है, यद्यपि अज्ञान वगैरह १८ दूषण हैं वे दूषण ही है साथ २ में भूख, प्यास, रोग, मृत्यु, स्वेद आदि भी केवली भगवान के दूषण ही हैं। अतः १८ दूषण में इनको भी जोड़ देना चाहिये। आ० कुन्दकुन्द लिखते हैं किजर वाहि जम्म मरणं च उगहगमणं च पुण्णपावं च । हंतूण दोस कम्मे, हुओ नाणमयं च अरिहंतो ॥३०॥ जर वाहि दुःख रहिय, आहार निहार वज्जियं विमलं । सिंहाण खेल सेदो, णस्थि दुगंछा य दोसो य ॥३७॥ . (बोधप्राभूत पृ. ९६--१०३) इस हिसाब से १८ दूषण ये हैं-भूख, प्यास, भय, द्वेष, राग, मोह, चिन्ता, जरा, रोग, मृत्यु, खेद, स्वेद, मद, अरति, विस्मय, जन्म, निद्रा और विषाद। For Private And Personal Use Only
SR No.020729
Book TitleShvetambar Digamber Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand Shah
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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