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॥ १८ ॥ ए अढारे पापस्थानक सेव्यां होय, सेवराव्यां होय, सेवतां प्रते लला जाण्यां होय, ते सवे हुँ मन, वचन, कायये करी तस्स मिलामि मुक्कम ॥ श्ए॥
॥ ज्ञान, दर्शन, चारित्र, पाटी पोश्री, उवणी, कवली, नवकरवाली, देव गुरु धर्मकी आशातना करी होय॥ पन्नरे कर्मादानोकी आसेवना करी होय ॥राजकथा, देशकथा, स्त्रीकथा, जक्तकथा करी होय. और जो कोइ पाप पर निंदा की, होय, कराव्यु होय, करतां अनुमोद्यं होय सो सर्व मने वचने, कायाये करके, दिवस अतिचार आलोयण करके पमिकमपामें आलोचं ॥ तस्स मिलामि मुक्कम ॥ इति आलोयणं ॥ इहां प्रजातके पमिकमणामें दिवसके ठिकाने रात्रिका पाठ कहना ॥ इति ॥ ३० ॥
॥ पीछे सबस्सवि राश्य ॥ इत्यादि पाठ कहे. तिहां श्याका ॥ए पद कहनेसें आलोया हुआ अतिचारका प्रायश्चित्त मांगे ॥ गुरु कहे पमिकमह ॥ पीछे चं तस्स मिठामि चक्कर कहके संमासा प्रमाडोंन करके आसन पर बेठके जिमणा गोमा ऊंचा रखकें मावा गोमा नीचे करके ऐसें कहे कि नगवन् ! सूत्र जणुं ? तब गुरु कहे जणेह ॥ पीने श्वं कहि के तीन नवकार उर तीन वार करेमि ते ॥जण के स्वामि पमिक्कमिर्च जो मे राळ इत्यादि कहकर ॥ तं निंदे तं च गरिहामि पर्यंत वंदित्तु सूत्र बेठके कहे ॥ पीने खमा होकें अनुचिमि धाराहणाए इत्यादि संपूर्ण कहे, सो लिखते हे ॥
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