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( १०४ )
रस बुद्धो || विनय विवेक विचार सार गुणगणह मनोहर, सात हात सुप्रमाणदेह रूवहि रंभावर || ३ || नयणवयण कर चरण जणवि पंकजजलपाडिय, तेजहिं तारा चंद्र सूर आकास भमाडिय || रूहि मयण अनंगकरवि मेल्यो निरधाडिय, धीरममेरु गंभीर सिंधु चंगम चयचाडिय ॥ ४ ॥ पेखवि निरुवम रूवजास जण जंपे किंचिय, एकाकी किलमीत इत्थ गुण मेल्या संचिय ॥ अहवा निच्चयपुवजम्मजिणवर इण अंचिय, रंभा पउमा गवरी गंग रतिहां विधि वंचिय ॥ ५ ॥ नय बुध नयगुर कवि ण कोय जसु आगल रहियो, पंचसयां गुणपात्र छात्र हीडें परवरियो । कर निरंतर यज्ञ करम मिथ्यामति मोहिय, अणचलहोसे चरमनाण दंसह विसोहिय ॥ ६ ॥ वस्तु ॥ जंबूदीव जंबूदीव भरह वासंमि, खोणीतलमंडण, मगहदेस सेणियन रेसर, वरगुवरगाम तिहां, विप्पवसे वसुमुह, सुंदर तसु पुहवि भजा, सयलगुणगणरूवनिहाण, ताणपुत्त विज्जानिलो, गोयम अतिहि सुजाण ॥ ७ ॥ भास ॥ चरम जिणेसर केवलनाणी, चोविहसंघपट्टा जाणी || पावा पुर सामी संपत्तो, चउविह देव निकायहिँ जुत्तो ॥ ८ ॥ देवहि समवसरण तिहां कीजें, जिण दीठे मिथ्यामत छीजे | त्रिभुवनगुरु सिंहासन वेठा, तत्खिण मोह दिगंत पट्ठा ॥ ९ ॥ क्रोध मान माया मदपूरा, जाये नाठा जिम दिनचोरा || देव दुंदुभि आगासें वाजी, धरम नरेसर आव्यो गाजी ॥ १० ॥ कुसुमवृष्टि विरचै तिहां देवा, चउसठ इंद्रज मांगे सेवा || चामर छत्र शिरोवरि सोहे, रुवहि. जिनवर जगसहु मोहे ॥ ११ ॥ उपसमरसभरवरवरसंता, जोजन -
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